Saturday, December 30, 2017

1. बीस साल बाद

                               बीस साल बाद

बहुत सालो से मै अपने शहर में एक बार जाना चाहती थी, जहाँ मै पैदा हुई। पर मेरे घर में मेरी चाह, इच्छा की कभी कोई जगह नही रही, सो किसी ने कभी मेरी किसी बात को गंभीरता से लिया ही नही। हमेशा की तरह, मेरी इच्छाओ का सीने के अन्दर किसी कोने में उभर कर डूब जाना एक साधारण बात बनी रही देखते देखते बीस साल बीत गये। 
मै कुछ दिन पुरानी बीती बातो को याद करते हुए किसी के साथ वहाँ रहना चाहती थी, जो उस बीते वक्त्त में मेरे साथ रहा हो। शायद कुछ आधी, कुछ पूरी, भूल चुकी बाते फिर से ज़िन्दा हो उठती!
वहाँ परिवार में हम पाँच लोग थे। मम्मी, पापा, बड़ा भाई बब्बू, मै, और छोटा भाई ताज फिर पाँच के साथ दो सदस्य अौर जुड़ गये। एक, कमला, पूरा घर उसी के हवाले था, वो हमारे घर में काम करती थी। दूसरा, कोई ना कोई कुत्ता हमेशा हमारे साथ रहा। अब सिर्फ मै अौर मेरा भाई ही रह गये है। मै बब्बू के साथ जाना चाहती थी। "हां चलते हैं, कह कर वो भी उसे एक भूली बात बना भूल गया, पर मै बहुत बेचैन थी। समझ नही पा रही थी, जहाँ हम रहते थे अपने उस घर का कैसे, किससे पता करू। वो घर अब है भी यां टूट चुका! किसे फोन करू? मेरे पास किसी पहचान वाले का न पता था ना ही फोन नम्बर। एक दिन इनटरनेट पर एक नम्बर मिला, जिसका पता मेरे घर के पास का था-"city news" वहाँ  फोन किया। किसी अनजान से बात की। वो बहुत खुश हुआ, क्योंकि मै उसके शहर की थी। उसने बताया वहाँ के सारे मकान टूट चुके थे अौर अब वहाँ कुछ नही था। उसने फोटो खीच कर भेजने की बात भी कही, पर शायद भूल गया। 
मेरा इनटरनेट पे किसी जान पहचान को ढूढ़ने का सिलसिला जारी रहा। आखिर  Nag  Motor Training  Institute का फोन नम्बर मिला। नाग मोटरस मेरे घर के बहुत पास, बच्चपन से एक बहुत ही करीबी पहचाना नाम रहा है। उसके सामने से हमारा हर रोज़ का आना जाना था। वहाँ बस ट्रक, कार आदि गाड़ियां चलाना सिखाया जाता था। पहले वहाँ बस जैसी एक बड़ी सी गाड़ी हुआ करती थी, जिसके आगे दो लोगो के बैठने की जगह होती थी। जहाँ ड्राइवर और ड्राइविंग सीट पर सीखने वाला बैठता। पीछे दांये-बांये दो तरफ बने लकड़ी के फट्टे की सीट पे बैठे लड़के अपनी बारी का इंतज़ार करते। वहाँ फोन किया, पता चला सारे घर टूट चुके है, यानी मेरा घर भी अब नही रहा। पर पेड़ अभी कटे नही थे। उन्हे बहुत बहुत शुक्रिया कह कर उस दिन देर रात तक अपने घर और वहाँ आस पास के पेड़ो के बारे मै सोचती रही। ना जाने कब उन्हे काट फेंका जायेगा, ऊँची-ऊँची ईमारते बनाने के लिए! एैसा महसूस हो रहा था जैसे मेरे पेड़ भी एक आखिरी मुलाकात के लिए मेरे इंतजार में खड़े हों। नाजुक से स्वर्ण चम्पा के होने की मुझे बहुत कम उम्मीद थी। 

जब हम उस घर में  रहने गये थे, आंगन में एक बड़ा नीम का पेड़ अौर एक बहुत बड़ा, पूरे आंगन अौर घर के छत पे छाया हुआ, आम का पेड़ था, जिसे देख कर मै बहुत खुश हुई थी। वे दोनों मेरे नये दोस्त बन गये थे। नीम के पेड़ से गिरी निमोणीयो को इकठ्ठा करना, उनसे खेलना, आज भी याद आता है। छत पे चढ़ कर, मै अौर मेरी दोस्त आम के पेड़ की टहनीयों पर बैठ कर खेलते। सालो तक हमारी उन पेड़ो से दोस्ती बनी रही। आम के पेड़ में छोटे छोटे बहुत मीठे रसीले आम लगते थे, जिन्हें खा कर हमने गुठली बगीचे में फेंक दी थी। कुछ दिनो बाद आचानक देखा, दो गुठलियों से नाजुक, नन्हे पौधे अंकुरित हो रहे है! हम खुशी से उछल पड़े। उसके आस पास की जगह साफ की। उस जगह को उनका घर बना दिया। देखते देखते ना जाने कब दोनों बड़े पेड़ बन गये। दोनो एक दूसरे के पास इस तरह खड़े थे जैसे जुड़वा हों। इनके बड़े होते होते आंगन वाला आम का पेड़ मर गया। बगीचे वाले आम के पेड़, पहली बार जब बौर से भर गये, पापा बहुत खुश थे, कहने लगे, बहुत आम होंगे। उस साल हमने अपने प्यारे पेड़ो के पहले आम खाये। बहुत मीठे रसीले, बिलकुल आंगन वाले पेड़ के आम की तरह। उन पेड़ो को देख कर लग रहा था, आंगन वाले बड़े आम के पेड़ के दो बच्चे बगीचे में खड़े मुस्कुरा रहे हैं। 
और वो रीठे का मेरा प्यारा पेड़, जो पड़ोसी के बगीचे में होकर भी हमारा बन बैठा था। हमारे पड़ोसी काफी नाराज़ थे, अब हम से या पेड़ से मालूम नही। मम्मी से झगड़ा करने लगे, ये कहते हुए कि, "हमारा पेड़ तो आप को ही रीठा देता है"। मम्मी ने हसँ कर कहा, "आप हमारे गार्डन में आ कर रीठा चुन लिया करे"। पड़ोसी खुश हो गये हर मौसम में हमारा बगीचा रीठो से भर जाया करता था।   
      दिवाली में वहाँ  खूबसुरत रंगो वाले मिट्टी के खिलौने (बरतन), हाथी, घोड़ा, कई  दियों वाली लक्ष्मी मिलती थी। वहाँ की खास 'फोक आर्ट' हम हर साल खरीदते थे। दिवाली वाले दिन लक्षमी के सारे दीये जब एक साथ जलते, बहुत खूबसूरत लगती लक्षमी। 
मै दिवाली से एक दो दिन पहले पहुँच कर खिलौने अौर लक्षमी खरीदना चाहती थी। दिवाली उन्नीस अक्टूबर की थी. आखिर हा नही, हा नही करते हुए पन्द्रह अक्टूबर को जाना तय हुआ और अठ्ठारह को वहाँ से चल कर उन्नीस, यानी दिवाली के दिन वापस दिल्ली। बब्बू के पास ज्यादा वक्त नही था। उसका कहना था 15th की सुबह चलेगे 16th की सुबह वहाँ पहुँच जायेंगे, सारा दिन हमारे पास होगा। 17th  का  पूरा दिन भी घूमने के लिए रहेगा। फिर 18th की शाम वहाँ से चलेगे। उस दिन भी घूमेगे। छोटा सा शहर है, इतने दिन काफी है, इससे ज्यादा वहाँ क्या रहना। 
मैने कुछ नही कहा, जो तय हुआ मान लिया। सोचा कम से कम जा तो रही हूँ, वही बहुत है। 
जाना नीलाचल एक्सप्रेस से और लौटने का टिकट पुरषोत्तम का था। बाद में पता चला पुरुषोत्तम एक्सप्रेस 18 की शाम नही, सुबह 6:35 पे वहाँ से चलती थी, सो अठ्ठारह का दिन हमारे हाथ से गया

 2017 
शबनम गिल 

Tuesday, December 19, 2017

शालिनी

एक लाल पत्ता 


सुबह सुबह उसने गर्म बिस्तर में पड़ी शालिनी को एक लाल पत्ता दिया अौर कहा, "उसके शहर में एक मौसम आता है जब सारे पेड़ पहले लाल पत्तों से भर जाते है, फिर पीले पत्तों से। इसके बाद पत्ते झड़ जाते है"। ... शायद नये पत्तों के इंतजार में! अब एक लाल पत्ते से, पूरे पेड़ पर छाई लाली की खूबसूरती को भला कोई कैसे महसूस करे? ये लाल पत्ते की बात सिर्फ कुछ कहने के खातिर कही गई, उसके शहर की एक बात थी। जो शालिनी के शहर की बात नही थी अौर ना ही उस जनाब के माँ के शहर की बात, जहाँ वो पैदा हुआ था। उसकी माँ ने कभी उसके शहर को नही देखा, पर उस शहर को देखने की चाह, उस माँ के सीने के अन्दर कही  किसी गहरे, अंधेरे कूए में पड़ी रही उस कूए को सालो से खोदते, खोदते वो काफी दूर निकल चुकी थी ये कूआं उसके 'लाल' की खातिर ही खुदा, जिसने अपनी माँ के बुने पंख लगा कर उस लाल पत्तों वाले देश की तरफ उड़ जाना था। जो अब उसका देश उसका शहर बन गया लेकिन वो देश वो शहर उसकी माँ का नही था।
आधे ख्वाब से आधी जागी, बन्द आँखो को थोड़ा सा खोल कर शालिनी ने कहा, " वहाँ टेबल पर रख दो"
एक सूखा निर्जीव लाल पत्ता, एक सफेद निर्जीव लकड़ी के टेबल पर पड़ा था

शबनम गिल  

Thursday, December 7, 2017

शालिनी.......

                               शालिनी

सुबह सुबह ठीक पांच बजे के पोगा (कम्पनी के सायरन) के साथ वो पैदा हुआ था। सब बहुत खुश थे, लड्डू भी बटे, पर शालिनी को पैदा होने की कोई जल्दी नहीं थी। कौन से लड्डू बटने थे, सो आराम से अंगड़ाई लेते हुए सुबह दस बजे के बाद पैदा हुई थी वह। न जाने और भी कितनी शालिनिया पैदा हुई होंगी उस दिन! कितनो का पैदा होने के पहले या पैदा होने के बाद कत्ल हो गया हो! अब उनका कौन हिसाब रखे?
खैर जो भी हो, ये शालिनी तो एक रौशन ख्याल, पढ़े लिखे परीवार में पैदा हुई थी। नई नई बाते, जानकरिया रोज़ आ बैठती महफिल जमाने। शेल्फ में मुस्कुराती किताबे खूबसूरत अन्दाज से झांकती।उसकी माँ अपने हाथों से बढ़ियाबढ़िया डीज़ाइन के कपड़े, स्वैटर अपने बच्चो के लिए बनाती थी। बच्चपन में हमेशा नीविया क्रीम, इस्तमाल होता था, जिसकी खुशबू आज भी उसके अन्दर बसी थी। अब भी उसे वही क्रीम अच्छा लगता था.


माधुरी की माँ

आज अचानक इतने सालो बाद शालिनी के सामने माधुरी की माँ आ बैठी। उनका नाम क्या था, मालूम नही। शायद कोई भी नही जानता था। स्कूल के टीचर्, मास्टर, चपरासी सब ही उन्हे माधुरी की माँ ही कहते थे।
बचपन मे शालिनी ने जब भी उन्हे देखा, बहुत परेशान, दुखी, खामोशी को अपने चारो ओर लपेटे हुए। पेट एेसा, जैसे हर वक्त एक घड़ा बांध रखा हो अौर उस घड़े के अन्दर कोई नन्ही सी जान  हमेशा सांसे लेती रहती। सर पे, जैसे बाजार का सारा सिन्दूर उड़ेल लिया हो। साधु, संत, बाबा न जाने किस किस के यहां अपनी सासू माँ तो कभी अपनी माँ, भाभियो के साथ घूमती फिरती। बस एक घर का चिराग, यानी  उस खानदान के वारिस की चाह में। ना जाने कितने ताबीज-गंडे-धागे बांध रखे थे अपने उस मरे खुचले से जिस्म पे। उसके बदन में अब भी धड़कते  दिल के साथ एक पिंजर था, जो साड़ी के नीचे से झांकती हुई उसकी एक-एक हड्डी का पता बताने की कोशिश करता। अक्सर उन्हे देख कर शालिनी को बायोलौजी की लैबौट्री में रखा वो इंसान का कंकाल याद आ जाता, जो उस स्कूल मे रखा था, जहां उसकी मम्मी पढ़ाती थी।
माधुरी की चार छोटी बहने थी अब छठवां आने वाला था। वह अपनी छोटी बहन बाला के साथ रोज़ स्कूल आती। दोनो के सर पे ढेर सारा सरसो का तेल पुता होता, जो कान के पास से चू कर उनके स्कूल यूनीफार्म के ऊपरी हिस्से पे मैल की परत पे परत चढ़ाता। दो चोटियों में बंधे लाल फीते काले रंग के होने का भ्रम पैदा करते। गले और हाथ में लटके ताबीज़ के काले धागे तेल से चिट चिट करते और एक सड़ी सी बू फैलाते।
उस दिन टीचरे गपशप कर रही थी। माधुरी को देख कर एक बोली, "इसकी माँ  ने ना जाने कितने मंगते पैदा करने है, एक तो संभाला जाता नही"! दूसरी जो थोड़ी बुजुर्ग थी, बोली "एेसा ना कह इन बच्चों को, इसमें इनका क्या दोष। इसकी माँ को बेटा पैदा करने के लिए ससुराल वालो ने परेशान कर रखा है। बेचारी की बेटियां ही बेटियां पैदा होती जा रही।" फिर आवाज़ कुछ धीमी कर दूसरी बोली, "अब तो इसकी सास ने आखरी चेतावनी भी दे दी है, इस बार बेटा नही, तो दूसरी बहू ले आयेगी।" गहरी सांस भर एक बोली, "रब करे, इस बार मुंडा हो जाये"।
   शादी से पहले माधुरी की माँ एक स्कूल मे पढ़ाती थी। शादी के बाद ससुराल वालो ने नौकरी छुडा दी, उस खानदान की औरते घर से बाहर जा कर नौकरी नही करती थी। माधुरी के माँ, बाप, भाइयो ने भी उसकी शादी कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा ली और उसे उसकी किस्मत पर छोड़ दिया।

शालिनी को माधुरी की माँ पे बहुत गुस्सा आता था। वो सोचती, ये क्यू जुल्म सहती जा रही है? उन दिनों शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, घरेलू हिंसा गलत होती है, ये सोच कही थी ही नही, लड़की की शादी, बहुत जरूरी थी। रो धो के जैसे तैसे हो जाय। फिर जहां डोली गई उसी घर से अर्थी भी उठना होता था।
पर क्या आज हालात सचमुच बदल गए हैं...? अब भी जिस लड़की की शादी नही हुई वो बेचारी कहलाये। शादी के बाद बेटा पैदा नही हुआ, फिर बेचारी बन जाये। इतने सालो बाद शालिनी सोच रही थी क्या उसमे और माधुरी की माँ में ज्यादा फर्क है? फिर उसे खुद पे गुस्सा क्यू नही आ रहा? क्या वो भी  शादी कर घर  में जब-तब इस्तमाल के लिए ला कर रखी गई एक सामान भर नही है?

  शबनम गिल