Sunday, July 30, 2017

उस दिन ताज पैदा हुआ

 बिलासी तार-कंपनी के अस्पताल में मम्मी के लिए खाना ले कर जा रही थी, मुझे भी साथ ले गई। अपने ही ध्यान में खोई बिलासी, मम्मी को खाना खाने को कह कर, घर की कुछ बाते बताने लगी। अचानक मैने  लाल कंबल में एक छोटा सा बच्चा देखा।  कंबल इतना बड़ा था कि बच्चे का पता ही नहीं चल रहा था। मै बच्चे के पास खड़े हो कर डरते डरते हल्के हाथ से उसे छू कर देख रही थी। पहली बार इतना छोटा बच्चा देखा था। मम्मी को जोर से भूख लगी थी। बड़े टिफिन को देख कर मम्मी को हैरानी हो रही थी, और गुस्सा भी आ रहा था। जिसमे रोटी, दाल, सब्जी न जाने क्या क्या भरा था। मम्मी ने कहा, "क्या मै ये सब खाऊगी"? हल्की खिचड़ी वगैरा नहीं लाई? "क्यों? क्या पेट खराब है"? कहते ही बिलासी जोर जोर से हँसने लगी। क्यों की उसकी नजर कंबल में लिपटे बच्चे पे पड़ गई। हसते हसते पूछी, "क्या है"? मम्मी ने कहा, "बेटा"। बच्चा होने के बाद  देसी घी में ड्राई फ्रूट्स, गुड़, सोंठ बना कर खिलाया  जाता था। असल में बिलासी और मुझ से पहले हॉस्पिटल में मम्मी से मिलने साधु राम (मेरी  बुआ का लड़का, जो पापा से कुछ साल छोटे थे, हमारे घर में ही रहते थे।  सब उन्हें पापा का छोटा भाई समझते थे) आये थे। बहुत सीधे सादे, उन्हें पता ही नहीं चला कि बच्चा पैदा हो गया था। घर जा कर कहा, "मामी जी की तबियत बहुत ख़राब है, चुप चाप लेटी थी"। मम्मी को लगा था बच्चा होने की खबर घर पहुच गई होगी। थोड़ा कुछ खिला कर बिलासी भागी भागी घर पहुँची। ताईजी, बुआ सब को खबर मिलते ही घर पहुचे। साधू राम की बात पे सब बहुत हँस रहे थे। घर का बेड रूम खाली किया गया। ईटे लगा लकड़ी का चूल्हा जला। लोहे की बड़ी कड़ाही में पंजीरी बनना शुरू। सारे घर में पंजीरी की खशबू फैल गई थी। उस दिन ताज पैदा हुआ था।
Today is my brother Taj's birthday!
One of my kidney was in his body.
He is no more.




Thursday, July 27, 2017

एक औरत की तकलीफ

तुम औरत होकर,
एक औरत की तकलीफ,
नहीं समझती ?
गुस्से से वो मुझपर चिल्लाया।

मैने पूछा,
सालों से चली आ रही,
मेरी तन्हाई,
उसका क्या ?

उस दर्द का क्या,
जो हर रोज़,
बढ़ते जख्मो से उभरे ?

उस रिसते खून का मेरा,
हिसाब कौन करे,
मानसिक शोषण को,
अपना हक बना,
जो औरत, मर्द, अपने, पराये,
हर कोई आज भी,
बहाता चला आ रहा ?
क्या मै एक औरत नहीं ?

वो चुप रहा,
भवें तान, होठों को भींचे,
ख़ामोशी से मुझे देखता,
क्योंकी मैं उसकी,
औरत नहीं थी,
जब तब के इस्तेमाल के लिए।
               शबनम गिल


Sunday, July 9, 2017

कमरा, खिड़की, दरवाजा और जिंदगी

एक कमरा था ,
चार दीवारों से घिरा,
खिड़की थी ,
घने जाली से ढकी ,
हवा छन छन कर आती रही ,
जिंदगी के लिए ,
दरवाजा था
अन्दर लाने के लिये ,
या कभी भी बाहर
 धकेल दिए जाने के लिए ?
                     शबनम गिल 

Saturday, July 1, 2017

अच्छे दिन के इन्तजार में

पेट जा चिपकी है रीढ़ से,
बस एक टुकड़े रोटी की,
चाह है बाकी,
न जाने कब दिन बदले!
अब तो नसों में बहता खून,
ठहरने को है,
हड्डियों का ढांचा,
बदन के बोझ को उठाये हिचकोले खाता,
पिजड़ में अब भी कहीं,
एक दिल है धड़कता,
अच्छे दिन के इन्तजार में,
शायद एक टुकड़ा रोटी नसीब हो,
इस पेट को, जो जा चपका है रीढ़ से !