Wednesday, May 9, 2018

25 Boishakh (২৫শে বৈশাখ)


Rabindra Jayanti (রবীন্দ্র জয়ন্তী)
  25  Boishakh (২৫শে বৈশাখ)


                              Rabindranath Thakur


  রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর 

Saturday, April 21, 2018

Coffee.......रोड किनारे ढाबे की चाय



कुछ साल पहले जब Facebook ज़्यादा लोकप्रिय नही था, मै flickr में अपनी painting डालने लगी। बहुत से लोगो को मेरा काम अच्छा लगा। उनमें से लगभग सभी मुझे नही जानते थे, ना ही मै उन्हे। वहाँ मै सिर्फ अपने काम के ज़रिये मौजूद थी। मेरे कामों को देख कर हर कोई अपने-अपने मुताबिक मेरा परिचय  बना लेते। मेरे लिए भी उनका परिचय उनके काम या मेरे कामों पर उनके विचार ही थे। कुछ लोगो को मेरा काम बेहद पसंद था। धीरे धीरे वे मेरे खास दोस्त बन गये। जो facebook में आज भी मेरे दोस्त है पर दोस्ती की वो गर्माहट अब..
flickr पर एक छोटी सी प्यारी लड़की ने मुझे लिखा, वो मेरे साथ कभी एक कप कौफी पीना चाहती है. यानी जब भी वो मुझसे मिलेगी, कॉफी के एक प्याले पर मुझसे बहुत बातें करेगी... मै बहुत खुश थी। वो मुझे अपने परिवार का ही हिस्सा लगती थी। 
कॉफी ..., ये शब्द मेरे बचपन से जवानी की ओर बढ़ते वक्क्त में काफी ऊँचा माना जाता था। उन दिनो ही नहीं, शायद आज भी ज्यादातर लोग अपने दिन की शुरूआत चाय से ही करते है। घर में कोई मेहमान आए तो चाय नाशता होता, कॉफी नाशता नही। रोड किनारे छोटे छोटे ढाबो में भी कॉफी नही चाय ही बिकती। उन दिनों चाय काफी सस्ती होती थी। पाँच दस  या ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह पैसे की (अब तो बढ़ते-बढ़ते रोड किनारे बिकने वाली चाय भी दस रूपये की हो गई है)। हां, तब भी कॉफी मिलती थी, ज्यादातर साउथ इन्डियन रेस्टुरेंट में।
इंडिया जेसे देशो में वर्कशौप सेमिनार आदि में भी टी-ब्रेक होता, यूरोप की तरह  कॉफी ब्रेक नही, भले वहां चाय के साथ-साथ कॉफी भी सर्व होता हो। मिडल क्लास की नज़र हमेशा यूरोप-अमेरिका की ओर ही रहती है। यहाँ अंग्रेजी  बोलने वाले  काफी इज्जत की नज़र से देखे जाते है। जो फर्राटे में अंग्रेजी न बोल पाय, उन्हें आमतौर पर बेवकूफ ही समझा जाता है। इन सेमिनारों में आम लोगो की बड़ी बड़ी परेशानियां, उनपर होने वाले जुल्म-अत्याचार को ले कर अंग्रेजी में ही बहसें होती है। जिनके बारे में बहस होती उन तक बात पहुँच रही है या नही, वो अलग बात है। एक खाता-पीता तबका कॉफी-ब्रेक के साथ लगा रहता। ये तरर्क्की पसंद लोगो का तबका, रौशन ख्याली में सराबोर होकर बड़े बड़े प्रोटेस्ट ओर्गनाइज करते, पर वहाँ आम लोग शामिल नही होते, जिनके नाम पर प्रोटेस्ट होता।
......
तमिलनाडु और कर्णाटक में पीढ़ियो से कौफी का चलन रहा है। एक कहानी भी चली आ रही है कि 16वीं सदी में सूफी बाबा बुदन यमन से कॉफी के सात बीज छुपाकर लाये थे। तभी से यहां कॉफी कि खेती शुरू हुई। इन दो राज्यो में रोड किनारे ढाबों में भी स्वादिष्ट फिल्टर कॉफी मिलती है।
1990 में, जब मेरे छोटे भाई का किडनी ट्रांसप्लांट हो रहा था, मै कुछ महीने वेल्लोर में रही। वहाँ जगह-जगह सड़क किनारे ढाबो में बहुत बढ़िया फिल्टर कॉफी  मिलती थी, जैसे दिल्ली, बिहार, बंगाल, आदि जगहो में चाय।
अब तो एक कॉफी-कल्चर ही चल पड़ा है। एअरपोर्ट, स्टेशन, अस्पताल के बाहर, shopping malls जैसे जगहो में कॉफी मिलने लगा है। मिडल क्लास में इसका बाज़ार बढ़ता जा रहा है, फिर भी ज्यादातर लोग कॉफी के मुकाबले चाय ही पीना पसंद करते हैं। पर आमतौर पर किसी रैस्तरॉ में कॉफी ऑर्डर करो, नैसकैफे मिलता है, असली सीड कॉफी नहीं।
जब मैं टीन-एज में थी, मुझे हमेशा एक ढाबे में, रोड के किनारे बैठ कर चाय पीने की इच्छा होती थी, जो शायद ही कभी हो पाती थी। जिसकी बहुत बड़ी वजह थी मेरा लड़की होना। अगर कहीं रोड-किनारे बैठ गई, भले ही तीन चार लड़कियां मिल कर... चार-छै लड़के तो हमें घेर ही लेते थे। वो संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जाती थी। वो कुछ ना भी करे, पर उनकी घूरती नज़रे, नज़दीक आने, थोड़ा सा छू लेने की कोशिश या कमेन्ट, ये तो साधारण बात थी। उस ज़माने में आवारा लड़के लड़कियों को आँख मारते थे, यानी एक आँख  दबा कर इशारा करना, उन्हे छेड़ना। चाय के ढाबे मे तो जिधर देखो उधर आँखे दबने लगती। ऐसे में जल्दी ही चाय आधी या पूरी, कुछ भी हो छोड़ कर उठ जाना बेहतर लगता। घर में अगर पता चल जाये कि हम चाय के ढाबे में बैठे थे, तो डांट अलग पड़ती। कहा जाता, किसी होटल या केंटीन में चाय पी लेती। एक बार तो एक आंटी से बहुत डांट पड़ी, कहने लगी, अच्छी लड़कियां रोड पे खड़े हो कर चाय नही पीती।
एकबार पापा के साथ जंगल वाले इलाके में जब रोड पर बैठ कर किसी ढाबे में चाय पी, तो बहुत मज़ा आया। वहाँ शहर वाली सभ्य लड़कियां नही थी, आदिवासी मर्द-औरते- लड़के -लड़कियां सब आराम से एक साथ बैठ कर चाय पी रहे थे।
हमारे लिए रोड में चाय पीना सिर्फ चाय पीने की बात नही थी, लड़कियों की आज़ादी की बात थी, जो उस समय आज की तरह 'आजादी की आवाज़' बन कर नही उभरी थी। पर ये एक सोच की शुरूआत थी। लड़के सड़क पे दिन रात कभी भी कही भी बैठ कर चाय पी सकते है, हम दिन में भी क्यो नही पी सकती?
......
कुछ साल पहले वो कॉफी वाली लड़की बहुत खुशी खुशी मुझसे मिलने आई। हमारे यहाँ बड़े 5 स्टार कि कॉफी की जगह, रोड किनारे ढाबे की चाय जैसा माहौल देख उसके सपनोका महल जो मेरे बारे में खड़ा था, ताश के पत्तो की तरह गिर कर बिखर गया।
उसके लिए मै एक painting बनाने लगी पर वो ले जाने से डर रही थी, या लेना नही चाहती थी, नही जानती। जब वो जाने लगी उसे और उसके परिवार के हर सदस्य के लिए छोटे छोटे तोहफे भेजे, जो शायद महगे नही थे। वापस लौट कर फिर उसने कभी मुड़ कर मेरी तरफ तो क्या मेरी paintings की तरफ भी नही देखा, शायद वे अब तारीफ के काबिल नही रह गये थे!

Saturday, March 24, 2018

दोस्ती (friendship)

कुछ दोस्ती, अचानक शोर की तरह आती है,
जल्दी ही गुज़र जाने के लिए.
बहुत कम दोस्ती सारी उम्र,
साथ साथ चलती चली जाती है,
बिना मक्सद के हर हाल में साथ निभाती.
शबनम गिल

Thursday, March 15, 2018

इंतज़ार, एक सच

इंतज़ार........
एक सच


जब उम्र बढ़ते बढ़ते एक एैसी जगह आकर ठहर जाती है, जहाँ दिखना-सुनना, चलना-फिरना सब घटता चला जाता। अच्छा बढ़िया चटपटा खाने की इच्छाये बढ़ती चली जाती है अौर पेट-हाज्मा सब नाराज़ हो बैठते है। तब वो बच्चे की तरह गुस्सा करती। फिर डांट सुनती। ऊपर से, जब कोई बात सुन नही पाती अौर बच्चा कहे, सारा मुहल्ला सुन लेता, बस तुम ही नही सुन पाती ... तब?
वो बस खामोशी ओढ़ पड़ी रहती। जब अपने ही बेटे-बेटियां पास ना बैठ, दूर-दूर रहते। जिनके लिए सारी उम्र कमाती रही... पेनशन के रुप में अब भी कमाती है, बिस्तर पे पड़े पड़े।
अकेलापन... इंतज़ार एक टुकड़ा खुशी का...  जो चाहे, फेंक कर ही दे दिया जाय... या इंतज़ार, आखरी सांस का...

                                                            Shubnum gill

Monday, March 5, 2018

WorldWildlifeDay

3 March WorldWildlifeDay 
Ranthambore tiger
Oil on canvas
Based on Aditya sing's photograph
Painting shubnum gill 

Friday, March 2, 2018

Colours in me

Colours  in me
self portrait
Friends Fight for you,
Respects you,
 Encourage you,
 Need you,
 love you, Include you,
allways Stand by you.
painting shubnum gill


Monday, February 26, 2018

बीस साल बाद -3

16 -10 - 2017

रौशनी को अंधेरे की चादर लपेटती शाम धीरे धीरे रात की अोर सरकती जा रही थी। हमारी ट्रेन भी सरकती हुई स्टेशन के प्लैटफारम की ओर बढ़ रही थी। मै अपने फोन से विडीयो बनाने की कोशिश कर रही थी। हाथ कांप रहे थे, लड़खड़ाती तस्वीरे कैद करते हुए बार बार लग रहा था, जैसे फोन ट्रेन की खिड़की से बाहर गिरने को हो। शाम सवा पाँच बजे के बाद आखिर ट्रेन टाटा नगर स्टेशन के प्लैटफार्म पर रुक गई। मै भी जैसे ठहर सी गई।अनजाने में आँखे बीते वक़्त में जा, किसी की मुस्कुराहट को ढूढने लगी। मै आते जाते लोगो में किसी को पहचानने की कोशिश में थी। पहले की तरह, शायद कोई हमें लेने आया हो। पर ... कौन? अब तो वहाँ कोई नहीं जो हमें स्टेशन लेने आता! कुछ बेचैन भागते दौड़ते, कुछ मुस्कराते अौर कुछ स्थिर चेहरे इधर उधर दिख रहे थे। आखिर अपने शहर पहुँच गई मै, इस सच को मानने की कोशिश कर रही थी। फिर हड़बड़ा कर पैरो को कुछ घसीठते हुए ट्रैन से उतरने लगी, लगा कही गाड़ी के चल पड़ने से मेरा शहर ना छूट जाये। बब्बू ने कहा, "आराम से अभी टाईम है"। 
    बीस साल पहले उस प्लैटफार्म को मेरे पैरो ने छुआ था, या कहूँ मेरे शहर ने मुझे छुआ था, जब 1997 में मम्मी के साथ आई थी। पर इस बार लग रहा था, मानो वहाँ की पूरी हवा मुझ में समा गई हो। गहरी सांस लेकर ट्रेन से उतर कर हम स्टेशन से बाहर निकले। पहली बार अपने ही शहर में अपने घर में ना ठहर होटल में ठहरने जा रही थी। होटल पहले से ही बुक था। एक बड़े बेढंगे ऑटो में बैठ कर हम होटल के लिए चल पड़े। हमें वही पुराना, पहचाना, मेरे अंदर तक बसा नाम 'साकची' जाना था। जहाँ ना जाने कितने साल गुजारे थे। पता भी ना चला कब नये नये एहसास में लिपटते हुए बचपन जवानी की ओर कदमों को बढ़ाती हुई बढ़ चली थी। ऑटो के ऊचे सीट की वजह से हम बाहर ठीक से देख नही पा रहे थे। झुक-झुक कर जाने पहचाने  रास्तो को पहचानने की कोशिश में थे। स्टेशन से निकल कर पुल पर जाने वाला ऊपर की ओर चढ़ता रास्ता अब भी पहले की ही तरह टूटा फूटा, ऊबड़ खाबड़ था। ऊपर वही पुराना पुल। आगे बर्मा-माइंस में इस्टप्लांट की बस्ती कहाँ गई, समझ नही पा रहे थे।

जगह-जगह पहचाने रास्तों ने कुछ नये नये दुकानो के जामा पहन रखे थे, उन्हे पहचानने में परेशानी हो रही थी। शायद सड़क से दूर  वो छोटी सी बस्ती घनी हो सड़क से आ मिली थी कुछ आगे बढ़ने के बाद हम सोच रहे थे, हमारी मोटर पार्टस की दुकान कहाँ गई? वही कहीं तो थी, एक पुल के पास? एक तो धुंधली यादो में लिपटी बीस साल बाद आई थी, ऊपर से शाम की स्लेटी चादर ओढ़े हमारा शहर। पहले दुकानो की इतनी भीड़ नहीं थी। साकची की एक गली में जब ऑटो मुड़ कर चलने लगा, कुछ समझ नही आया हम कहाँ जा रहे थे। रौशनी फेंकती दुकानो की भीड़ से आँखे चौधिया कर रास्ता भूल बैठी। सब कुछ अनजाना लगने लगा। मै सोच रही थी शहर में साकची का चेहरा ना सही, कम से कम हाथ पैर, कुछ तो पहचान पाऊ। देखते देखते हमारा औटो एक होटल के सामने खड़ा हो गया। सोच रही थी कितनी जल्दी पहुँच गये? दिल्ली में तो थोड़ी दूर जाना हो,  वक़्त की  लम्बाई  इतनी लम्बी होती कि इंतज़ार करते करते आदमी थक जाये, लगता समय खत्म ही नही हो रहा! 
होटल के बाहर खड़े हो कर आस पास देखा, लगा जैसे हमारा शहर हमें पहचान ही ना रहा हो। सोच रही थी, ये कौन सी जगह है? औटो वाले से पता चला ATM पास ही था। बब्बू अब जगह को कुछ-कुछ पहचान रहा था। कहने लगा करनैल होटल पास ही है, हम थोड़ी देर बाद वहाँ चलते है कुछ खाने। होटल के रजिस्टर में हम दोनो का नाम लिख कर, जब होटल वाले ने हमारे बीच का रिश्ता पूछा तो, हमे हंसी आ गई। जैसे हम सोलह साल के लड़का-लड़की घर से भाग कर आए हो। बब्बू ने बहन कह कर हँसते हुए कहा, गर्ल-फ्रेन्ड होती तो नहीं रहने देते? उसने कहा, नही सर। 
हम होटल के कमरे में पहुँच कुछ देर दो दिनो के थके पैरो को बिस्तर पे पसार कर पड़े रहे। बब्बू फोन पर अपने दोस्त राम कुमार से बाते करता रहा। उसी ने होटल में रहने का इंतजाम किया था। फिर थोड़ा फ्रेश होकर हम कुछ खाने-पीने निकल पड़े। बब्बू ATM से पैसे निकाल रहा था अौर मै उस अंधेरी रौशनी में अपने शहर के उस हिस्से को पहचानने की कोशिश। करनैल होटल करीब ही था। वहाँ पापा के साथ जाते थे, कभी कभी, पर वहाँ बैठते नही थे, क्योंकि शाम होते ही वहां दारू पीने वालो की भीड़ हो जाती। होटेल का मालिक पापा की बहुत इज्जत करता था , खाना पैक करवा देता। पहले सोचा था, वहाँ कुछ नॉन-वेज खाया जाय।  ये होटल कभी दारू अौर मूर्गमस्सलम का अड्डा हुआ करता था, पर अब वैष्णो हो गया है। बाहर से खाली खाली बेकार लगा हम आगे बढ़ गये। अब रास्ते हमें अौर हम रास्तों को पहचानने लगे। वही पुराना सब्जी-बाज़ार, कुछ बदला नही था।

बाज़ार के अन्दर से आलू प्याज़ की वो ऊची दुकान मेरी तरफ झांक कर मुस्कुरा रही थी। ना जाने कितनी बार उस दुकान में मम्मी के साथ गई थी। हम बाज़ार के अन्दर ना जा, आगे की अोर बढ़ गये। हमने तय किया, बांदी रोड, जहाँ हमारा घर था, सुबह जाएंगे, अंधेरे में जाने का कोई फायदा नही था। मछली बाजार की गली भी दिखी, वहाँ एक आदमी बड़ा सा टब ले कर बैठा था। शायद पहले की तरह ज़िन्दा मागुर माछ यां केकड़ा बेच रहा था! वहाँ ना जा, हम मिट्टी के खिलौनो की दुकान में पहुँचे। सुबह आ कर खरीदने की बात की। दुकानदार ने सुबह अौर रंगो की लक्षमी ला कर देने की बात कही। एक ठेले वाले से सेब खरीदे, वो खुश हो कर बाते कर रहा था, हमारे समय का था। बता रहा था, पुराने होटल बन्द हो गये, जो वहाँ आस पास हुआ करते थे। बसंत टॉकीज़, जहाँ हम फिल्म देखने जाया करते थे, बन्द हो चुका था। वहाँ बसंत एन्क्लेव बन रहा था। हम अपने पुराने पहचाने साक्ची बाज़ार के रास्ते में घूमने लगे। 
जमशेदपुर में बहुत अच्छी मिठाईया मिलती थी। सोचा, मिठाई खाई जाए। एक मिठाई की दुकान के बाहर सीड़ी पर बैठ कर एक औरत बड़े से दोने में सफेद रस मलाई जैसा कुछ खा रही थी। दुकान में जाकर बब्बू ने कहा, "वो औरत जो खा रही है हमें भी देना"। दुकानदार ने झांक कर देखा फिर कहा वो नही जनता वो क्या खा रही है।
बब्बू ने मुझे उस औरत से जाकर पूछने को कहा। मै बहुत कम बात करती हूँ जिन्हे नही जानती यां थोड़ी बहुत जानपह्चान भी हो तो भी उनसे ज्यादा बाते करना मुश्किल लगता। मै उसके पास जा कर मुस्सकुराई, ताकि उससे पूछ सकू। वो मुस्कुरा कर बोली, "लगता है आप बाहर से आई हैं"। जब पता चला मै भी जमशेदपुर की ही हूँ, और दिल्ली से आई थी बहुत खुश हुई।अब वो बोलती जा रही थी, मै तो देखते ही समझ गई थी, जमशेदपुर तोमार् मायका है, दिल्ली ससुराल। फिर पति, बच्चा, मकान, फैमली, मेरे बारे उसने ही सब कुछ बता दिया, पता नही क्या बोलती रही, मै कुछ बोलू उसने मौका ही नही दिया। मै कुछ कहने लगती, बीच में ही काट कर मेरी बात पूरा कर देती। फिर खड़ी होकर बोली "बहुत अच्छा लगा तुम से मिल कर", आसी बोल कर भीड़ में अपने बच्चे के साथ वो बढिया सा खाने की चीज़ को राज बना, गायब हो गई। उस दुकान से एक एक मीठा चम चम खाया। कोई खास नही लगा। थोड़ी सी मिठाई पैक करवा कर वही बाज़ार में घूमने लगे, पर वो बात मन में अटकी रही- वो औरत इतनी सारी मिठाई कहाँ से खरीद कर खा रही थी?
घूमते घूमते हम साकची के मशहूर मिठाई की दुकान भोला महाराज के सामने पहुंचे। दुकान के ठीक बाहर एक आदमी साईकल पर बड़े-बड़े दोने में वैसा ही कुछ बेच रहा था, जैसा वो औरत खा रही थी। थोड़ा पास जा कर देखा, टुकड़े किये इडली के ऊपर सफेद चटनी। कुछ अंधेरा अौर कुछ दिमाग में छाए मिठाई के भूत की वजह से इडली रस मलाई बन गई थी। हम दोनो हसँने लगे। बब्बू कहने लगा, अच्छा हुआ पता चल गया, नही तो सारे वक़्त दिमाग में घूमता रहता, आखिर वो खा क्या रही थी? 'भोला महाराज' अब दिल्ली के मिठाई की दुकानों की तरह दिखा। बाहर निकल आये, बेकार वहाँ क्या खाना सोचा। फिर वही सवाल खड़ा था, कहाँ कुछ बढ़िया खाया जाय। राम कुमार को फोन किया, उसने पास ही आमबगान में एक होटल बताया। हम रिक्सा ढूढ़ने लगे, एक भी नही मिल रहा था। किसी से पूछा, पता चला रिक्से बन्द होते जा रहे थे। कहा, ऑटो ले लें पास ही है। ऑटो वाले को बहुत जल्दी थी जल्दी जल्दी अभी बैठे ही थे, कहने लगा जल्दी से उतरो, हम पहुँच भी गये थे। वहाँ वो ज्यादा देर गाड़ी खड़ी नही कर सकता था। 
होटल पास ही था. अौर साफ सुथरा भी। मै मिर्च नही खाती हूँ, खाने में मिर्च मसाला नही थी। मुझे वहाँ खाना अच्छा लगा। खाना खाने के बाद हम रिक्सा ढूँढ़  रहे थे, पर मिला नही। रिक्सा वहाँ बन्द होते जा रहे हैं। हर तरफ शेयर वाले औटो भर गये थे। गोलचक्कर तक पैदल गये, रात के अंधेरे में भी सब कुछ बहुत पास-पास और पहचाना लग रहा था। फिर ओटो ले कर होटल पहुँचे.. 
बिस्तर पे लेटे लेटे मै यूँ ही कुछ सोच रही थी, बब्बू फोन पे बाते कर रहा था। वो जिससे भी बात करता, कहता डिड्ल एक बार आना चाहती थी, इसलिये वो उसे लेकर आया। क्या उसे अपने शहर से लगाव नहीं था? सिर्फ मेरे लिए ही वह यहां आया? ये बात मुझ पर किया जाने वाला एहसान बन कर, मुझे दूर कही सुनसान, अकेले में छोड़ आया। अौर मै सबसे जुदा, अकेली, अपने अन्दर समा गई।  राम कुमार हमारे लिए अच्छे से अच्छा इंतजाम कर रहा था। दूसरे दिन के लिए एक टैक्सी बुक थी, ताकि हम सारा दिन आराम से घूम सके...

Shubnum gill

Sunday, February 25, 2018

मुस्कुराहट

उस दिन किसी काम में मन नही लग रहा था l सोच रही थी स्केच करू, पर जो भी बना रही थी सब बेकार l बैठ कर फिल्म देखू , थोड़ा सा देख दूसरी फिल्म, उसे छोड़ तीसरी, चौथी .... l आचानक फिल्म छोड़ अलग अलग फिल्मो के गाने देखने लगी l जो मधुबाला पे आ कर ठहर गई l गानो में फिर तो बस मधुबाला ही मुस्कुरती जा रही थी l उसकी मुस्कुराहट मुझे बहुत अच्छी लगती है l चेहरा बनाने लगी l पता चला उस दिन ही मधुबाला का जन्म दिन भी था l सो जल्दी में मधुबाला की मुस्कुराहट को अपने अन्दर महसूस करने की बस एक छोटी सी कोशिश थी l फिर कभी इतमिनान से मधुबाला के साथ बैठूँगी l  



Madhubala
(Mumtaz Jehan Begum Dehlav)
14 February 1933 - 23 February 1969

Monday, January 1, 2018

बीस साल बाद - 2

15 - 10 - 2017
बीस साल बाद - 2 


15th अक्टूबर को हम एक आधी (RAC) और एक पूरी टिकट लेकर नीलाचल एक्सप्रेस से चलने को तैयार हुए। जाने की खुशी में सारी रात आँखो से नींद गायब रही। कब सुबह के चार बज गये पता ही ना चला। उठ कर यू ही कुछ बेकार के काम निपटाती रही। नीलाचल को सुबह 6:35 पर चलना था, पता चला लेट है। पहले जिस दिन हमें जाना होता था, सुबह तीन बजे उठ कर पूरी अौर आलू की सब्जी बनाते, साथ में आचार, चनाचूर, उबले अंडे, ब्रेड, जैम, चीज़, ना जाने क्या क्या खाने का सामान पैक होता। चौबीस घंटे का सफर फिकनिक मनाते गुज़रता। इस बार सिर्फ चार अंडे उबाले, ब्रेड, चीज़, जैम लिया। निकलते समय ठेले वाले से दो प्लेट पोहा के पैक करवा लिए। ट्रेन लेट होती जा रही थी, जाने का इंतजार मुझे तकलीफ दे रहा था। ट्रेन के लेट होने का सिलसिला आखिर 9:40 पे जा कर ख़त्म हुआ। ऐ सी का टिकट नही मिला था, हम स्लीपर क्लास में जा रहे थे। मै खुश थी क्यों कि ऐ सी में उसकी काँच ढ़की खिड़की बाहर की दुनिया से हमे अलग कर देती है। और स्लीपर क्लास की खिड़की के पास बैठ कर लगता है जैसे बाहर की हरीभरी दुनिया मुझे अन्दर तक छूती हुई चल रही हो। 
हम स्टेशन पहूँच कर ट्रेन में चढ़े। मेरा एक अौर बब्बू का नौ नम्बर कोच था। हमारे पास ज्यादा सामान नही था, सीट के नीचे रख दिया। ट्रेन में जाने वाले अौर उन्हे पहुँचाने वालो की भीड़ अौर शोर के बीच मै सिकुड़ कर एक कोने में बैठी लोगो के सामान के बीच अपना पैरो को कहीं रखने की कोशिश कर रही थी। सोचा पहले की तरह जब ट्रेन चल पड़ेगी, शांति हो जायेगी। पर ट्रेन के चलने के साथ साथ भीड़, धक्का-मुक्की, शोर अौर बड़ता चला गया। मै बीस साल पहले भी नीलाचल से गई थी। एैसा लग रहा था, जैसे उसी बीस साल पुराने डब्बे में बैठी हुँ, जो खटारा हो कर कुछ ज्यादा ही झटके मार रहा था। मुझे बार-बार अपने पैरो के लिए जगह बनानी पड़ रही थी। ट्रेन ने अपनी धीमी चाल को बनाये रखते हुए, रूकती-चलती अपने लेट होने के सिलसिले को बढ़ाना जारी रखा। बब्बू अौर मै अलग अलग डब्बो में बैठे थे। मेरे डब्बे के ठीक बगल वाला डब्बा पैन्ट्री कार था, जहाँ जितनी बार खाने में छोंका लगता हमारा डब्बा धुये से भर जाता। आँखो में जलन होने लगती। मै खिड़की के पास बैठी थी फिर भी हालत खराब थी। टायलेट के बारे में कोई क्या कहे, वहाँ तक पहुँचना मतलब कितने बैठे लोगो के ऊपर से या धक्का देते जगह बनाते शायद पहुँच जाऊ। अगर बीच में ही अटक गई मैं ना इधर ना उधर। अौर अगर टायलेट तक पहुँच जाये कोई तो उसका हाल क्या कहूँ। बस खाना-पीना जितना कम हो, वही अच्छा। कम से कम टायलेट के दर्शन हो, वही भला! शाम तक बैठे बैठे मेरे पैर सूज गये अौर कमर अक्कड़ गई। 

पन्द्रह तारीख़ जैसे तैसे बीता। बब्बू का टिकट R A C था, यानी एक सीट में दो लोग। दूसरा आदमी कुछ ज्यादा ही तन्दरूस्त था, सीट पर उसके लेट जाने के बाद दूसरा ..... सो बब्बू मेरी सीट पर मेरे साथ सोने आ गया। जिन लोगो की टिकट वेटिग थी, टी टी को उन लोगो की बहुत फिक्र हो रही थी। कोने में ले जाता, वहाँ खुसुर-पुसुर होती, जेब गर्म हो जाती तो छोड़ देता। इसलिए काफी भीड़ थी. हर सीट में दो दो लोग। मेरा लोअर बर्थ था। जमीन पर दोनो लोअर बर्थ के बीच वाली जगह में ठीक ठाक लम्बे चौड़े दो लोग अटे पड़े थे। अपनी सीट से उतरना चढ़ना मुश्किल था। बब्बू जैसे तैसे मेरी सीट पर आ कर लेटा। अभी सोई ही थी कि सुबह हो गई, उठ कर बैठ जाना पड़ा, क्योंकि वेटिंग टिकट वालो के अलवा हर स्टेशन में चढ़ने वालो को भी बैठना था। पहले ये नीलाचल अच्छी ट्रेन मानी जाती थी। तकरीबन सही समय पर चलती, ज्यादा से ज्यादा दस पनद्रह मिनट देर से पहूँचती, हाँ, कभी कभी ज्यादा लेट करती। पर अब सबसे घटिया ट्रैन बन चुकी है। 
सोलह तारीख़ भी सारा दिन हालत खराब रही। रोते-धोते, रुकते-चलते गाड़ी ने सुबह 7:35 की जगह शाम पाँच बजे के बाद पहूँचना था। यानी सोलह तारीख़ भी गया। अब हमारे पास सतरह तारीख़, यानि, सिर्फ एक दिन रह गया था।

शबनम गिल