Saturday, December 30, 2017

1. बीस साल बाद

                               बीस साल बाद

बहुत सालो से मै अपने शहर में एक बार जाना चाहती थी, जहाँ मै पैदा हुई। पर मेरे घर में मेरी चाह, इच्छा की कभी कोई जगह नही रही, सो किसी ने कभी मेरी किसी बात को गंभीरता से लिया ही नही। हमेशा की तरह, मेरी इच्छाओ का सीने के अन्दर किसी कोने में उभर कर डूब जाना एक साधारण बात बनी रही देखते देखते बीस साल बीत गये। 
मै कुछ दिन पुरानी बीती बातो को याद करते हुए किसी के साथ वहाँ रहना चाहती थी, जो उस बीते वक्त्त में मेरे साथ रहा हो। शायद कुछ आधी, कुछ पूरी, भूल चुकी बाते फिर से ज़िन्दा हो उठती!
वहाँ परिवार में हम पाँच लोग थे। मम्मी, पापा, बड़ा भाई बब्बू, मै, और छोटा भाई ताज फिर पाँच के साथ दो सदस्य अौर जुड़ गये। एक, कमला, पूरा घर उसी के हवाले था, वो हमारे घर में काम करती थी। दूसरा, कोई ना कोई कुत्ता हमेशा हमारे साथ रहा। अब सिर्फ मै अौर मेरा भाई ही रह गये है। मै बब्बू के साथ जाना चाहती थी। "हां चलते हैं, कह कर वो भी उसे एक भूली बात बना भूल गया, पर मै बहुत बेचैन थी। समझ नही पा रही थी, जहाँ हम रहते थे अपने उस घर का कैसे, किससे पता करू। वो घर अब है भी यां टूट चुका! किसे फोन करू? मेरे पास किसी पहचान वाले का न पता था ना ही फोन नम्बर। एक दिन इनटरनेट पर एक नम्बर मिला, जिसका पता मेरे घर के पास का था-"city news" वहाँ  फोन किया। किसी अनजान से बात की। वो बहुत खुश हुआ, क्योंकि मै उसके शहर की थी। उसने बताया वहाँ के सारे मकान टूट चुके थे अौर अब वहाँ कुछ नही था। उसने फोटो खीच कर भेजने की बात भी कही, पर शायद भूल गया। 
मेरा इनटरनेट पे किसी जान पहचान को ढूढ़ने का सिलसिला जारी रहा। आखिर  Nag  Motor Training  Institute का फोन नम्बर मिला। नाग मोटरस मेरे घर के बहुत पास, बच्चपन से एक बहुत ही करीबी पहचाना नाम रहा है। उसके सामने से हमारा हर रोज़ का आना जाना था। वहाँ बस ट्रक, कार आदि गाड़ियां चलाना सिखाया जाता था। पहले वहाँ बस जैसी एक बड़ी सी गाड़ी हुआ करती थी, जिसके आगे दो लोगो के बैठने की जगह होती थी। जहाँ ड्राइवर और ड्राइविंग सीट पर सीखने वाला बैठता। पीछे दांये-बांये दो तरफ बने लकड़ी के फट्टे की सीट पे बैठे लड़के अपनी बारी का इंतज़ार करते। वहाँ फोन किया, पता चला सारे घर टूट चुके है, यानी मेरा घर भी अब नही रहा। पर पेड़ अभी कटे नही थे। उन्हे बहुत बहुत शुक्रिया कह कर उस दिन देर रात तक अपने घर और वहाँ आस पास के पेड़ो के बारे मै सोचती रही। ना जाने कब उन्हे काट फेंका जायेगा, ऊँची-ऊँची ईमारते बनाने के लिए! एैसा महसूस हो रहा था जैसे मेरे पेड़ भी एक आखिरी मुलाकात के लिए मेरे इंतजार में खड़े हों। नाजुक से स्वर्ण चम्पा के होने की मुझे बहुत कम उम्मीद थी। 

जब हम उस घर में  रहने गये थे, आंगन में एक बड़ा नीम का पेड़ अौर एक बहुत बड़ा, पूरे आंगन अौर घर के छत पे छाया हुआ, आम का पेड़ था, जिसे देख कर मै बहुत खुश हुई थी। वे दोनों मेरे नये दोस्त बन गये थे। नीम के पेड़ से गिरी निमोणीयो को इकठ्ठा करना, उनसे खेलना, आज भी याद आता है। छत पे चढ़ कर, मै अौर मेरी दोस्त आम के पेड़ की टहनीयों पर बैठ कर खेलते। सालो तक हमारी उन पेड़ो से दोस्ती बनी रही। आम के पेड़ में छोटे छोटे बहुत मीठे रसीले आम लगते थे, जिन्हें खा कर हमने गुठली बगीचे में फेंक दी थी। कुछ दिनो बाद आचानक देखा, दो गुठलियों से नाजुक, नन्हे पौधे अंकुरित हो रहे है! हम खुशी से उछल पड़े। उसके आस पास की जगह साफ की। उस जगह को उनका घर बना दिया। देखते देखते ना जाने कब दोनों बड़े पेड़ बन गये। दोनो एक दूसरे के पास इस तरह खड़े थे जैसे जुड़वा हों। इनके बड़े होते होते आंगन वाला आम का पेड़ मर गया। बगीचे वाले आम के पेड़, पहली बार जब बौर से भर गये, पापा बहुत खुश थे, कहने लगे, बहुत आम होंगे। उस साल हमने अपने प्यारे पेड़ो के पहले आम खाये। बहुत मीठे रसीले, बिलकुल आंगन वाले पेड़ के आम की तरह। उन पेड़ो को देख कर लग रहा था, आंगन वाले बड़े आम के पेड़ के दो बच्चे बगीचे में खड़े मुस्कुरा रहे हैं। 
और वो रीठे का मेरा प्यारा पेड़, जो पड़ोसी के बगीचे में होकर भी हमारा बन बैठा था। हमारे पड़ोसी काफी नाराज़ थे, अब हम से या पेड़ से मालूम नही। मम्मी से झगड़ा करने लगे, ये कहते हुए कि, "हमारा पेड़ तो आप को ही रीठा देता है"। मम्मी ने हसँ कर कहा, "आप हमारे गार्डन में आ कर रीठा चुन लिया करे"। पड़ोसी खुश हो गये हर मौसम में हमारा बगीचा रीठो से भर जाया करता था।   
      दिवाली में वहाँ  खूबसुरत रंगो वाले मिट्टी के खिलौने (बरतन), हाथी, घोड़ा, कई  दियों वाली लक्ष्मी मिलती थी। वहाँ की खास 'फोक आर्ट' हम हर साल खरीदते थे। दिवाली वाले दिन लक्षमी के सारे दीये जब एक साथ जलते, बहुत खूबसूरत लगती लक्षमी। 
मै दिवाली से एक दो दिन पहले पहुँच कर खिलौने अौर लक्षमी खरीदना चाहती थी। दिवाली उन्नीस अक्टूबर की थी. आखिर हा नही, हा नही करते हुए पन्द्रह अक्टूबर को जाना तय हुआ और अठ्ठारह को वहाँ से चल कर उन्नीस, यानी दिवाली के दिन वापस दिल्ली। बब्बू के पास ज्यादा वक्त नही था। उसका कहना था 15th की सुबह चलेगे 16th की सुबह वहाँ पहुँच जायेंगे, सारा दिन हमारे पास होगा। 17th  का  पूरा दिन भी घूमने के लिए रहेगा। फिर 18th की शाम वहाँ से चलेगे। उस दिन भी घूमेगे। छोटा सा शहर है, इतने दिन काफी है, इससे ज्यादा वहाँ क्या रहना। 
मैने कुछ नही कहा, जो तय हुआ मान लिया। सोचा कम से कम जा तो रही हूँ, वही बहुत है। 
जाना नीलाचल एक्सप्रेस से और लौटने का टिकट पुरषोत्तम का था। बाद में पता चला पुरुषोत्तम एक्सप्रेस 18 की शाम नही, सुबह 6:35 पे वहाँ से चलती थी, सो अठ्ठारह का दिन हमारे हाथ से गया

 2017 
शबनम गिल 

Tuesday, December 19, 2017

शालिनी

एक लाल पत्ता 


सुबह सुबह उसने गर्म बिस्तर में पड़ी शालिनी को एक लाल पत्ता दिया अौर कहा, "उसके शहर में एक मौसम आता है जब सारे पेड़ पहले लाल पत्तों से भर जाते है, फिर पीले पत्तों से। इसके बाद पत्ते झड़ जाते है"। ... शायद नये पत्तों के इंतजार में! अब एक लाल पत्ते से, पूरे पेड़ पर छाई लाली की खूबसूरती को भला कोई कैसे महसूस करे? ये लाल पत्ते की बात सिर्फ कुछ कहने के खातिर कही गई, उसके शहर की एक बात थी। जो शालिनी के शहर की बात नही थी अौर ना ही उस जनाब के माँ के शहर की बात, जहाँ वो पैदा हुआ था। उसकी माँ ने कभी उसके शहर को नही देखा, पर उस शहर को देखने की चाह, उस माँ के सीने के अन्दर कही  किसी गहरे, अंधेरे कूए में पड़ी रही उस कूए को सालो से खोदते, खोदते वो काफी दूर निकल चुकी थी ये कूआं उसके 'लाल' की खातिर ही खुदा, जिसने अपनी माँ के बुने पंख लगा कर उस लाल पत्तों वाले देश की तरफ उड़ जाना था। जो अब उसका देश उसका शहर बन गया लेकिन वो देश वो शहर उसकी माँ का नही था।
आधे ख्वाब से आधी जागी, बन्द आँखो को थोड़ा सा खोल कर शालिनी ने कहा, " वहाँ टेबल पर रख दो"
एक सूखा निर्जीव लाल पत्ता, एक सफेद निर्जीव लकड़ी के टेबल पर पड़ा था

शबनम गिल  

Thursday, December 7, 2017

शालिनी.......

                               शालिनी

सुबह सुबह ठीक पांच बजे के पोगा (कम्पनी के सायरन) के साथ वो पैदा हुआ था। सब बहुत खुश थे, लड्डू भी बटे, पर शालिनी को पैदा होने की कोई जल्दी नहीं थी। कौन से लड्डू बटने थे, सो आराम से अंगड़ाई लेते हुए सुबह दस बजे के बाद पैदा हुई थी वह। न जाने और भी कितनी शालिनिया पैदा हुई होंगी उस दिन! कितनो का पैदा होने के पहले या पैदा होने के बाद कत्ल हो गया हो! अब उनका कौन हिसाब रखे?
खैर जो भी हो, ये शालिनी तो एक रौशन ख्याल, पढ़े लिखे परीवार में पैदा हुई थी। नई नई बाते, जानकरिया रोज़ आ बैठती महफिल जमाने। शेल्फ में मुस्कुराती किताबे खूबसूरत अन्दाज से झांकती।उसकी माँ अपने हाथों से बढ़ियाबढ़िया डीज़ाइन के कपड़े, स्वैटर अपने बच्चो के लिए बनाती थी। बच्चपन में हमेशा नीविया क्रीम, इस्तमाल होता था, जिसकी खुशबू आज भी उसके अन्दर बसी थी। अब भी उसे वही क्रीम अच्छा लगता था.


माधुरी की माँ

आज अचानक इतने सालो बाद शालिनी के सामने माधुरी की माँ आ बैठी। उनका नाम क्या था, मालूम नही। शायद कोई भी नही जानता था। स्कूल के टीचर्, मास्टर, चपरासी सब ही उन्हे माधुरी की माँ ही कहते थे।
बचपन मे शालिनी ने जब भी उन्हे देखा, बहुत परेशान, दुखी, खामोशी को अपने चारो ओर लपेटे हुए। पेट एेसा, जैसे हर वक्त एक घड़ा बांध रखा हो अौर उस घड़े के अन्दर कोई नन्ही सी जान  हमेशा सांसे लेती रहती। सर पे, जैसे बाजार का सारा सिन्दूर उड़ेल लिया हो। साधु, संत, बाबा न जाने किस किस के यहां अपनी सासू माँ तो कभी अपनी माँ, भाभियो के साथ घूमती फिरती। बस एक घर का चिराग, यानी  उस खानदान के वारिस की चाह में। ना जाने कितने ताबीज-गंडे-धागे बांध रखे थे अपने उस मरे खुचले से जिस्म पे। उसके बदन में अब भी धड़कते  दिल के साथ एक पिंजर था, जो साड़ी के नीचे से झांकती हुई उसकी एक-एक हड्डी का पता बताने की कोशिश करता। अक्सर उन्हे देख कर शालिनी को बायोलौजी की लैबौट्री में रखा वो इंसान का कंकाल याद आ जाता, जो उस स्कूल मे रखा था, जहां उसकी मम्मी पढ़ाती थी।
माधुरी की चार छोटी बहने थी अब छठवां आने वाला था। वह अपनी छोटी बहन बाला के साथ रोज़ स्कूल आती। दोनो के सर पे ढेर सारा सरसो का तेल पुता होता, जो कान के पास से चू कर उनके स्कूल यूनीफार्म के ऊपरी हिस्से पे मैल की परत पे परत चढ़ाता। दो चोटियों में बंधे लाल फीते काले रंग के होने का भ्रम पैदा करते। गले और हाथ में लटके ताबीज़ के काले धागे तेल से चिट चिट करते और एक सड़ी सी बू फैलाते।
उस दिन टीचरे गपशप कर रही थी। माधुरी को देख कर एक बोली, "इसकी माँ  ने ना जाने कितने मंगते पैदा करने है, एक तो संभाला जाता नही"! दूसरी जो थोड़ी बुजुर्ग थी, बोली "एेसा ना कह इन बच्चों को, इसमें इनका क्या दोष। इसकी माँ को बेटा पैदा करने के लिए ससुराल वालो ने परेशान कर रखा है। बेचारी की बेटियां ही बेटियां पैदा होती जा रही।" फिर आवाज़ कुछ धीमी कर दूसरी बोली, "अब तो इसकी सास ने आखरी चेतावनी भी दे दी है, इस बार बेटा नही, तो दूसरी बहू ले आयेगी।" गहरी सांस भर एक बोली, "रब करे, इस बार मुंडा हो जाये"।
   शादी से पहले माधुरी की माँ एक स्कूल मे पढ़ाती थी। शादी के बाद ससुराल वालो ने नौकरी छुडा दी, उस खानदान की औरते घर से बाहर जा कर नौकरी नही करती थी। माधुरी के माँ, बाप, भाइयो ने भी उसकी शादी कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा ली और उसे उसकी किस्मत पर छोड़ दिया।

शालिनी को माधुरी की माँ पे बहुत गुस्सा आता था। वो सोचती, ये क्यू जुल्म सहती जा रही है? उन दिनों शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, घरेलू हिंसा गलत होती है, ये सोच कही थी ही नही, लड़की की शादी, बहुत जरूरी थी। रो धो के जैसे तैसे हो जाय। फिर जहां डोली गई उसी घर से अर्थी भी उठना होता था।
पर क्या आज हालात सचमुच बदल गए हैं...? अब भी जिस लड़की की शादी नही हुई वो बेचारी कहलाये। शादी के बाद बेटा पैदा नही हुआ, फिर बेचारी बन जाये। इतने सालो बाद शालिनी सोच रही थी क्या उसमे और माधुरी की माँ में ज्यादा फर्क है? फिर उसे खुद पे गुस्सा क्यू नही आ रहा? क्या वो भी  शादी कर घर  में जब-तब इस्तमाल के लिए ला कर रखी गई एक सामान भर नही है?

  शबनम गिल   

Wednesday, September 20, 2017

आज मेरे दोस्त चन्द्शेखर का जन्म दिन है


आज  मेरे दोस्त चन्द्शेखर का जन्म दिन है 

उस दिन हम दोनो ने एक साथ एक दूसरे से पूछा, "तुम्हारा जन्म दिन कब है?" मैने कहा मैने पहले पूछा, तुम पहले बताओ, उसने कहा "नही मैने पहले पूछा, पहले तुम बताओगी". दोनो ने नही बताया .उस दिन हम दोनो मे झगड़ा हो गया. दो दिनो बाद हम अजय भवन के चौबिस नम्बर रूम मे बैठे थे. मुझे देख कर मुस्कुरता रहा मै यू ही अपने sketch book  मे व्यस्थ होने का बहाना कर रही थी, चन्द्रशेखर खामोशी तोड़ कर अचानक बोला डी...डल (Diddle, मेरे बचपन का नाम घर मे सब इसी नाम से बुलते है) हम दोनो मे सिर्फ उन्नीस बीस  का फर्क  है. मै समझी नही कहा बेकार की बात मत करो. तभी दीवान जी कमरे मे आ गये और बात रह  गई .
मुझे बहुत बाद मे  उस उन्नीस बीस के राज का  पता चला.
मेरा जन्म दिन 19 सितंबर, और उसका 20  सितंबर.

Saturday, September 16, 2017

पुराने कागज़ो में एक पुरानी बात

Children Science Page designed and illustrated by me, published on May 5, 1995.





मेरा लिखा "दो बिछुड़े भाईयो की कहानी " 

Thursday, September 14, 2017

पुराने कागज़ो में एक पुरानी बात



पुराने  अखबार  में एक पुरानी बात की तरह मेरा  लिखा लेख "सबसे बड़ा फूल पद्मम राक्षस" (rafflesia arnoldii)  मिला. मेरे  बनाए  illustration के  साथ 
28 जून1992 में छपा था  


Saturday, August 12, 2017

प्रतीक्षा अपनी पहचान की


आॅखे निहारती रही,
बंन्द दरवाज़े को,
शायद वो पागल, सनकी प्रेमी,
अब भी खड़ा हो,
दरवाज़ा खुलने की प्रतीक्षा में!

फिर प्रतीक्षा के गर्भ से,
प्रतीक्षा का पैदा होना,
गुनाह के डर से, मेरे हाथ,
धकेल कर भी,
खोल ना सके दरवाज़ा,
उस पागल प्रेमी (मेरी आजादी) के लिए,
ना आलिंगन ही कर सकी,
अपवित्र होने के डर से,
पर चाह ने तो मुझे,
हर क्षण,
पवित्र ना रहने दिया था!

शबनम गिल



Sunday, July 30, 2017

उस दिन ताज पैदा हुआ

 बिलासी तार-कंपनी के अस्पताल में मम्मी के लिए खाना ले कर जा रही थी, मुझे भी साथ ले गई। अपने ही ध्यान में खोई बिलासी, मम्मी को खाना खाने को कह कर, घर की कुछ बाते बताने लगी। अचानक मैने  लाल कंबल में एक छोटा सा बच्चा देखा।  कंबल इतना बड़ा था कि बच्चे का पता ही नहीं चल रहा था। मै बच्चे के पास खड़े हो कर डरते डरते हल्के हाथ से उसे छू कर देख रही थी। पहली बार इतना छोटा बच्चा देखा था। मम्मी को जोर से भूख लगी थी। बड़े टिफिन को देख कर मम्मी को हैरानी हो रही थी, और गुस्सा भी आ रहा था। जिसमे रोटी, दाल, सब्जी न जाने क्या क्या भरा था। मम्मी ने कहा, "क्या मै ये सब खाऊगी"? हल्की खिचड़ी वगैरा नहीं लाई? "क्यों? क्या पेट खराब है"? कहते ही बिलासी जोर जोर से हँसने लगी। क्यों की उसकी नजर कंबल में लिपटे बच्चे पे पड़ गई। हसते हसते पूछी, "क्या है"? मम्मी ने कहा, "बेटा"। बच्चा होने के बाद  देसी घी में ड्राई फ्रूट्स, गुड़, सोंठ बना कर खिलाया  जाता था। असल में बिलासी और मुझ से पहले हॉस्पिटल में मम्मी से मिलने साधु राम (मेरी  बुआ का लड़का, जो पापा से कुछ साल छोटे थे, हमारे घर में ही रहते थे।  सब उन्हें पापा का छोटा भाई समझते थे) आये थे। बहुत सीधे सादे, उन्हें पता ही नहीं चला कि बच्चा पैदा हो गया था। घर जा कर कहा, "मामी जी की तबियत बहुत ख़राब है, चुप चाप लेटी थी"। मम्मी को लगा था बच्चा होने की खबर घर पहुच गई होगी। थोड़ा कुछ खिला कर बिलासी भागी भागी घर पहुँची। ताईजी, बुआ सब को खबर मिलते ही घर पहुचे। साधू राम की बात पे सब बहुत हँस रहे थे। घर का बेड रूम खाली किया गया। ईटे लगा लकड़ी का चूल्हा जला। लोहे की बड़ी कड़ाही में पंजीरी बनना शुरू। सारे घर में पंजीरी की खशबू फैल गई थी। उस दिन ताज पैदा हुआ था।
Today is my brother Taj's birthday!
One of my kidney was in his body.
He is no more.




Thursday, July 27, 2017

एक औरत की तकलीफ

तुम औरत होकर,
एक औरत की तकलीफ,
नहीं समझती ?
गुस्से से वो मुझपर चिल्लाया।

मैने पूछा,
सालों से चली आ रही,
मेरी तन्हाई,
उसका क्या ?

उस दर्द का क्या,
जो हर रोज़,
बढ़ते जख्मो से उभरे ?

उस रिसते खून का मेरा,
हिसाब कौन करे,
मानसिक शोषण को,
अपना हक बना,
जो औरत, मर्द, अपने, पराये,
हर कोई आज भी,
बहाता चला आ रहा ?
क्या मै एक औरत नहीं ?

वो चुप रहा,
भवें तान, होठों को भींचे,
ख़ामोशी से मुझे देखता,
क्योंकी मैं उसकी,
औरत नहीं थी,
जब तब के इस्तेमाल के लिए।
               शबनम गिल


Sunday, July 9, 2017

कमरा, खिड़की, दरवाजा और जिंदगी

एक कमरा था ,
चार दीवारों से घिरा,
खिड़की थी ,
घने जाली से ढकी ,
हवा छन छन कर आती रही ,
जिंदगी के लिए ,
दरवाजा था
अन्दर लाने के लिये ,
या कभी भी बाहर
 धकेल दिए जाने के लिए ?
                     शबनम गिल 

Saturday, July 1, 2017

अच्छे दिन के इन्तजार में

पेट जा चिपकी है रीढ़ से,
बस एक टुकड़े रोटी की,
चाह है बाकी,
न जाने कब दिन बदले!
अब तो नसों में बहता खून,
ठहरने को है,
हड्डियों का ढांचा,
बदन के बोझ को उठाये हिचकोले खाता,
पिजड़ में अब भी कहीं,
एक दिल है धड़कता,
अच्छे दिन के इन्तजार में,
शायद एक टुकड़ा रोटी नसीब हो,
इस पेट को, जो जा चपका है रीढ़ से !

Wednesday, June 21, 2017

क्या वो मेरा घर था ?



क्या वो मेरा घर था ? 
धूल की परतो को चढ़ता देखती रही ,
पड़ी रही अपने ही घर के ,
चहल पहल से भरे ,
किसी वीरान कोने में ,
दूसरे सामान के बीच।
शबनम गिल 
   

Monday, June 19, 2017

Woman and door

टूटते से कन्धे,
पैरों ने साथ छोड़ा|
आँखें धुँधली हो,

देखने को तैयार नहीं,
कमर कुछ झुकी,
और झुकने को बेताब,
छोड़ जाने को,
सब ही है तैयार,
फिर भी मैं क्यूँ,
नामालुम सा, बोझ उठाये,
अब भी कहीं,
चलती ही जा रही!
-शबनम

Monday, May 15, 2017

"सारी दुनिया मेरी होगी"

Lambadi (banjara)

बचपन में जिप्सियों (Gypsy) के बारे में पहली बार  मम्मी ने बताया।  एक विदेशी मैगज़ीन मम्मी घर पर मगाया करती थी। उसमें से देख कर बहुत सुन्दर डिजाइन के हम सब के लिए स्वेटर बनाती।  उसी मैगज़ीन में मैने जिप्सियों की तस्वीरें देखी, बहुत अच्छा लगा। चलता फिरता घर, असबाब और घोड़े! कही भी ठहरो, कभी भी कही चल दो। सारी दुनिया तुम्हारी और तुम दुनिया के!
मम्मी घुड़सवारी किया करती थी। उनसे मै घोड़ों के किस्से सुनती रही। सो, घोड़े मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे है। बड़े हो कर बहुत सारे घोड़े पालने के सपने देखने लगी। सपनो में उन घोड़ो के साधना कट बाल रखती।  उस समय की बहुत बड़ी होरोइन साधना  का एक हेयर स्टाइल साधना कट के नाम से बहुत लोकप्रीय हुआ था । पापा को बहुत पसंद आया, इसलिए मेरे बाल भी साधना कट स्टाइल में कटवा  दिये।
 मैने बचपन में तय किया था कि मै भी जिप्सी बनूंगी। बस फिर क्या, दुनिया भर में घूमती फिरूँगी। कहीं जाने के लिए कोई टिकट नहीं लेना होगा। फिर सारी  दुनिया मेरी होगी। जैसे उन जिप्सियों की थी! मै पापा-मम्मी से अलग अलग जगहों के बारे में तरह-तरह की बातें सुनती, फिर बच्चो को बगीचे के गेट पर इकठ्ठा कर, बना-बना कर कहानिया सुनाती।

Saturday, May 6, 2017

मेरे चाहने ना चाहने की बात




















मेरे चाहने ना चाहने की बात,
एक निवाले की तरह,
जा अटकी थी,
एक रौशन ख्याल, तरक्की पसन्द
मर्दानगी के गले,
फॉस बन चुभती रही,
साल दर साल,
अचानक बिना बात,
किसी बहाने,
मुस्कुराते होठो को लिये,
उसने मुझे काली कहा,
जो सिर्फ एक गाली थी.
[मुस्कुराते हुए, ना दिखते, पर दिखते हुए, कही ये एक मानसिक शोषण की बात तो नही?]      

Friday, May 5, 2017

 

        My paintings on Coffee mugs


                         Rabindranath Tagore


Albert Einstein

Tuesday, May 2, 2017

My painting on t-shirt.


My painting of Albert Einstein printed on t-shart

The important thing is not to stop questioning.

पहचान

नाखुश चेहरों के बीच, 
एक तुम के घर कभी, 
एक मै पैदा हुई थी कहीं .

गैरकानूनी थी नही,
सो तुम के नाम से सजी,
दबी रही तेरे एहसांनो तले.

तुम की पहचान को लिए,
बढ़ती रही हर रोज़,
तेरी चाह, इच्छाओ में बंधी।

बार बार कई तुम,
आते जाते रहे,
मै को देखने, परखने,
ले चलने अपने घर!

आखिर एक तुम,
मै को अपने घर ले जाने,
का एह्सान कर गया.

तेरे घर आंगन में,
तेरे नाम से लपेटी गई,
मेरी हिफाजत का जिम्मा,
अब तुम के कंधो पे था.

आयना की मै खुश थी ,
खूबसूरत गहनो कपड़ो में,
नज़ाकत से भरी

जल्द ही एक मै,
पैदा होने को थी,
पर पहले ही कत्ल हो गयी
फिर बार बार,
मै के आने से,
लाल हुआ था कोख.

आज चेहरे खुश थे.
क्यों की एक तुम थे कोख में.
मै खास बनी,
सब ने लाड़ दिखाया,
खिलाया, पिलाया,खूब सजाया
दर्द तकलीफ में डूबी,
कमजोर जिस्म लिए,
जिंदगी थी दाव पे लगी,
तब एक तुम थे,
इस दुनिया में आये.

पर मै की पहचान तो,
सादे पन्ने सी रही,
एक तुम का नाम ही,
तुमकी पहचान बनी.

हर तुम की सेवा,
मै का फ़र्ज़ था,
जिम्मेदारियों से लादना,
तुम का मै पर एहसान बना.

अब तुम जवां हुए,
मै के जख्म, झुर्रियों तले,
अब भी थे हरे.

अब, एक मै तेरे लिए भी,
ढूढ़ने, देखने, परखने,
मै ही थी चली.

नवेली का आना,
उसके कोख में बार बार,
कई मै का कत्ल होना,
मेरे मै के जख्मो की दवा बनी.

फिर तो नवेली का ही,
कोख में एक मै के साथ कत्ल होना,
एक आम बात बनी.

फिर से नई नवेली,
लाल पैरो के निशान का,
मैं का, दरवाजे के अन्दर आना।
शबनम गिल

Saturday, March 18, 2017

Childhood memories......


















Memories
Childhood memories......
यादे, बचपन की

वो आंगन,
वो आम का गाछ,
फिर याद आया,
जहां कभी घोंसलो में,
कौवों के बच्चे,
चहका करते थे.
शबनम गिल 

Monday, March 6, 2017

Childhood memories...लकड़बग्घे












याद आता है वो जंगल,
जहाँ से लकड़बग्घे,
रोज रात निकल,
तालाब में पानी पीने,
गुज़रते थे मैदान की,
सकरी पगड़ंडियों से,
घूमते सारी रात,
तेरे, मेरे, उसके, इसके,
घरो के आस पास,
क्या वो जंगल,
पहले की तरह,
अब भी मुस्कुराता होगा ?
कही बिल्डिगों का जंजाल,
तो नही पसर गया,
पेड़ो को उजाड़ कर ?