याद आता है वो जंगल,
जहाँ से लकड़बग्घे,
रोज रात निकल,
तालाब में पानी पीने,
गुज़रते थे मैदान की,
सकरी पगड़ंडियों से,
घूमते सारी रात,
तेरे, मेरे, उसके, इसके,
घरो के आस पास,
क्या वो जंगल,
पहले की तरह,
अब भी मुस्कुराता होगा ?
कही बिल्डिगों का जंजाल,
तो नही पसर गया,
पेड़ो को उजाड़ कर ?