Saturday, November 19, 2016

दर्द

क्या दर्द की हर बात,
 सिर्फ,
 एक आवाज बन कर रह गई?

Tuesday, November 15, 2016

नाम


नाम
अपना नाम लिखने बैठी,
अक्षरो को ढूढ़ती, पहचानती, सोचती रही,
कौन सा अक्षर मेरा है?
फिर उन्हें करीने से सजाने में,
सुबह शाम में समा गई।
अब सोचते बैठी हूँ,
क्या था वो,
भला सा मेरा नाम?

Saturday, November 12, 2016

अप्रभावित




अप्रभावित 

उम्र के बढ़ते बढ़ते,
पूरा शरीर ही,

नियमो के टांको से,

भरता चला गया। 

आँसू बहे भी नही भी,

पर तकते आँखो के डेले,

शून्य से हो,

हर बात से क्यों ,

अप्रभावित रहे सदियो से?

शबनम

Wednesday, November 9, 2016

सांवली


सांवली
कभी एक तुम के घर,
एक वो लाई गई थी।
कम उर्म, सांवली,
सुबह, शाम, रात, दिन,
लगी रही,
अपना भाग्य समझ।
बिना पढ़ी, बेवकूफ,
गाॅव की गंवार का तमगा,
एक अनपढ़ तुम ने ही,
उसे पहनाया था।

पर तेरे आंगन मे फूल भी,
उसी ने खिलाया था!

गालियों से बदन का छलनी होना,
जखमों का मुस्कुराना,
उसका फर्ज बना।
फिर वो अकेली ही,
लड़ी, पढ़ी भी, पर,
पढ़ी लिखी अदृश्य,
काली उंगलियो ने,
उसे गंवार ही कहलवाया।

बीतते वक्त के साथ,
उसकी चूड़ियों की खनक,
किसी और हाथों से आने लगी।
उसकी खामोश आवाज़,
चीखी चिल्लाई भी, पर,
हर बहरे कान से गुम हो,
वो एक पागल कहलाई।
पागलपन की दवा का,
याद दिलाना सब का,
उस पर एहसान बना।
पागल होने का एहसास,
हर उंगली के साथ,
खुद की उंगली भी दिलाती रही।

बीमारियों के बाहों लेटी,
अब वो हर ये, वो, तुम से,
उदासीन हो चुकी है।
शबनम गिल