Thursday, December 7, 2017

शालिनी.......

                               शालिनी

सुबह सुबह ठीक पांच बजे के पोगा (कम्पनी के सायरन) के साथ वो पैदा हुआ था। सब बहुत खुश थे, लड्डू भी बटे, पर शालिनी को पैदा होने की कोई जल्दी नहीं थी। कौन से लड्डू बटने थे, सो आराम से अंगड़ाई लेते हुए सुबह दस बजे के बाद पैदा हुई थी वह। न जाने और भी कितनी शालिनिया पैदा हुई होंगी उस दिन! कितनो का पैदा होने के पहले या पैदा होने के बाद कत्ल हो गया हो! अब उनका कौन हिसाब रखे?
खैर जो भी हो, ये शालिनी तो एक रौशन ख्याल, पढ़े लिखे परीवार में पैदा हुई थी। नई नई बाते, जानकरिया रोज़ आ बैठती महफिल जमाने। शेल्फ में मुस्कुराती किताबे खूबसूरत अन्दाज से झांकती।उसकी माँ अपने हाथों से बढ़ियाबढ़िया डीज़ाइन के कपड़े, स्वैटर अपने बच्चो के लिए बनाती थी। बच्चपन में हमेशा नीविया क्रीम, इस्तमाल होता था, जिसकी खुशबू आज भी उसके अन्दर बसी थी। अब भी उसे वही क्रीम अच्छा लगता था.


माधुरी की माँ

आज अचानक इतने सालो बाद शालिनी के सामने माधुरी की माँ आ बैठी। उनका नाम क्या था, मालूम नही। शायद कोई भी नही जानता था। स्कूल के टीचर्, मास्टर, चपरासी सब ही उन्हे माधुरी की माँ ही कहते थे।
बचपन मे शालिनी ने जब भी उन्हे देखा, बहुत परेशान, दुखी, खामोशी को अपने चारो ओर लपेटे हुए। पेट एेसा, जैसे हर वक्त एक घड़ा बांध रखा हो अौर उस घड़े के अन्दर कोई नन्ही सी जान  हमेशा सांसे लेती रहती। सर पे, जैसे बाजार का सारा सिन्दूर उड़ेल लिया हो। साधु, संत, बाबा न जाने किस किस के यहां अपनी सासू माँ तो कभी अपनी माँ, भाभियो के साथ घूमती फिरती। बस एक घर का चिराग, यानी  उस खानदान के वारिस की चाह में। ना जाने कितने ताबीज-गंडे-धागे बांध रखे थे अपने उस मरे खुचले से जिस्म पे। उसके बदन में अब भी धड़कते  दिल के साथ एक पिंजर था, जो साड़ी के नीचे से झांकती हुई उसकी एक-एक हड्डी का पता बताने की कोशिश करता। अक्सर उन्हे देख कर शालिनी को बायोलौजी की लैबौट्री में रखा वो इंसान का कंकाल याद आ जाता, जो उस स्कूल मे रखा था, जहां उसकी मम्मी पढ़ाती थी।
माधुरी की चार छोटी बहने थी अब छठवां आने वाला था। वह अपनी छोटी बहन बाला के साथ रोज़ स्कूल आती। दोनो के सर पे ढेर सारा सरसो का तेल पुता होता, जो कान के पास से चू कर उनके स्कूल यूनीफार्म के ऊपरी हिस्से पे मैल की परत पे परत चढ़ाता। दो चोटियों में बंधे लाल फीते काले रंग के होने का भ्रम पैदा करते। गले और हाथ में लटके ताबीज़ के काले धागे तेल से चिट चिट करते और एक सड़ी सी बू फैलाते।
उस दिन टीचरे गपशप कर रही थी। माधुरी को देख कर एक बोली, "इसकी माँ  ने ना जाने कितने मंगते पैदा करने है, एक तो संभाला जाता नही"! दूसरी जो थोड़ी बुजुर्ग थी, बोली "एेसा ना कह इन बच्चों को, इसमें इनका क्या दोष। इसकी माँ को बेटा पैदा करने के लिए ससुराल वालो ने परेशान कर रखा है। बेचारी की बेटियां ही बेटियां पैदा होती जा रही।" फिर आवाज़ कुछ धीमी कर दूसरी बोली, "अब तो इसकी सास ने आखरी चेतावनी भी दे दी है, इस बार बेटा नही, तो दूसरी बहू ले आयेगी।" गहरी सांस भर एक बोली, "रब करे, इस बार मुंडा हो जाये"।
   शादी से पहले माधुरी की माँ एक स्कूल मे पढ़ाती थी। शादी के बाद ससुराल वालो ने नौकरी छुडा दी, उस खानदान की औरते घर से बाहर जा कर नौकरी नही करती थी। माधुरी के माँ, बाप, भाइयो ने भी उसकी शादी कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा ली और उसे उसकी किस्मत पर छोड़ दिया।

शालिनी को माधुरी की माँ पे बहुत गुस्सा आता था। वो सोचती, ये क्यू जुल्म सहती जा रही है? उन दिनों शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, घरेलू हिंसा गलत होती है, ये सोच कही थी ही नही, लड़की की शादी, बहुत जरूरी थी। रो धो के जैसे तैसे हो जाय। फिर जहां डोली गई उसी घर से अर्थी भी उठना होता था।
पर क्या आज हालात सचमुच बदल गए हैं...? अब भी जिस लड़की की शादी नही हुई वो बेचारी कहलाये। शादी के बाद बेटा पैदा नही हुआ, फिर बेचारी बन जाये। इतने सालो बाद शालिनी सोच रही थी क्या उसमे और माधुरी की माँ में ज्यादा फर्क है? फिर उसे खुद पे गुस्सा क्यू नही आ रहा? क्या वो भी  शादी कर घर  में जब-तब इस्तमाल के लिए ला कर रखी गई एक सामान भर नही है?

  शबनम गिल   

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