तुम औरत होकर,
एक औरत की तकलीफ,
नहीं समझती ?
गुस्से से वो मुझपर चिल्लाया।
मैने पूछा,
सालों से चली आ रही,
मेरी तन्हाई,
उसका क्या ?
उस दर्द का क्या,
जो हर रोज़,
बढ़ते जख्मो से उभरे ?
उस रिसते खून का मेरा,
हिसाब कौन करे,
मानसिक शोषण को,
अपना हक बना,
जो औरत, मर्द, अपने, पराये,
हर कोई आज भी,
बहाता चला आ रहा ?
क्या मै एक औरत नहीं ?
वो चुप रहा,
भवें तान, होठों को भींचे,
ख़ामोशी से मुझे देखता,
क्योंकी मैं उसकी,
औरत नहीं थी,
जब तब के इस्तेमाल के लिए।
शबनम गिल
एक औरत की तकलीफ,
नहीं समझती ?
गुस्से से वो मुझपर चिल्लाया।
मैने पूछा,
सालों से चली आ रही,
मेरी तन्हाई,
उसका क्या ?
उस दर्द का क्या,
जो हर रोज़,
बढ़ते जख्मो से उभरे ?
उस रिसते खून का मेरा,
हिसाब कौन करे,
मानसिक शोषण को,
अपना हक बना,
जो औरत, मर्द, अपने, पराये,
हर कोई आज भी,
बहाता चला आ रहा ?
क्या मै एक औरत नहीं ?
वो चुप रहा,
भवें तान, होठों को भींचे,
ख़ामोशी से मुझे देखता,
क्योंकी मैं उसकी,
औरत नहीं थी,
जब तब के इस्तेमाल के लिए।
शबनम गिल
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