Saturday, April 21, 2018

Coffee.......रोड किनारे ढाबे की चाय



कुछ साल पहले जब Facebook ज़्यादा लोकप्रिय नही था, मै flickr में अपनी painting डालने लगी। बहुत से लोगो को मेरा काम अच्छा लगा। उनमें से लगभग सभी मुझे नही जानते थे, ना ही मै उन्हे। वहाँ मै सिर्फ अपने काम के ज़रिये मौजूद थी। मेरे कामों को देख कर हर कोई अपने-अपने मुताबिक मेरा परिचय  बना लेते। मेरे लिए भी उनका परिचय उनके काम या मेरे कामों पर उनके विचार ही थे। कुछ लोगो को मेरा काम बेहद पसंद था। धीरे धीरे वे मेरे खास दोस्त बन गये। जो facebook में आज भी मेरे दोस्त है पर दोस्ती की वो गर्माहट अब..
flickr पर एक छोटी सी प्यारी लड़की ने मुझे लिखा, वो मेरे साथ कभी एक कप कौफी पीना चाहती है. यानी जब भी वो मुझसे मिलेगी, कॉफी के एक प्याले पर मुझसे बहुत बातें करेगी... मै बहुत खुश थी। वो मुझे अपने परिवार का ही हिस्सा लगती थी। 
कॉफी ..., ये शब्द मेरे बचपन से जवानी की ओर बढ़ते वक्क्त में काफी ऊँचा माना जाता था। उन दिनो ही नहीं, शायद आज भी ज्यादातर लोग अपने दिन की शुरूआत चाय से ही करते है। घर में कोई मेहमान आए तो चाय नाशता होता, कॉफी नाशता नही। रोड किनारे छोटे छोटे ढाबो में भी कॉफी नही चाय ही बिकती। उन दिनों चाय काफी सस्ती होती थी। पाँच दस  या ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह पैसे की (अब तो बढ़ते-बढ़ते रोड किनारे बिकने वाली चाय भी दस रूपये की हो गई है)। हां, तब भी कॉफी मिलती थी, ज्यादातर साउथ इन्डियन रेस्टुरेंट में।
इंडिया जेसे देशो में वर्कशौप सेमिनार आदि में भी टी-ब्रेक होता, यूरोप की तरह  कॉफी ब्रेक नही, भले वहां चाय के साथ-साथ कॉफी भी सर्व होता हो। मिडल क्लास की नज़र हमेशा यूरोप-अमेरिका की ओर ही रहती है। यहाँ अंग्रेजी  बोलने वाले  काफी इज्जत की नज़र से देखे जाते है। जो फर्राटे में अंग्रेजी न बोल पाय, उन्हें आमतौर पर बेवकूफ ही समझा जाता है। इन सेमिनारों में आम लोगो की बड़ी बड़ी परेशानियां, उनपर होने वाले जुल्म-अत्याचार को ले कर अंग्रेजी में ही बहसें होती है। जिनके बारे में बहस होती उन तक बात पहुँच रही है या नही, वो अलग बात है। एक खाता-पीता तबका कॉफी-ब्रेक के साथ लगा रहता। ये तरर्क्की पसंद लोगो का तबका, रौशन ख्याली में सराबोर होकर बड़े बड़े प्रोटेस्ट ओर्गनाइज करते, पर वहाँ आम लोग शामिल नही होते, जिनके नाम पर प्रोटेस्ट होता।
......
तमिलनाडु और कर्णाटक में पीढ़ियो से कौफी का चलन रहा है। एक कहानी भी चली आ रही है कि 16वीं सदी में सूफी बाबा बुदन यमन से कॉफी के सात बीज छुपाकर लाये थे। तभी से यहां कॉफी कि खेती शुरू हुई। इन दो राज्यो में रोड किनारे ढाबों में भी स्वादिष्ट फिल्टर कॉफी मिलती है।
1990 में, जब मेरे छोटे भाई का किडनी ट्रांसप्लांट हो रहा था, मै कुछ महीने वेल्लोर में रही। वहाँ जगह-जगह सड़क किनारे ढाबो में बहुत बढ़िया फिल्टर कॉफी  मिलती थी, जैसे दिल्ली, बिहार, बंगाल, आदि जगहो में चाय।
अब तो एक कॉफी-कल्चर ही चल पड़ा है। एअरपोर्ट, स्टेशन, अस्पताल के बाहर, shopping malls जैसे जगहो में कॉफी मिलने लगा है। मिडल क्लास में इसका बाज़ार बढ़ता जा रहा है, फिर भी ज्यादातर लोग कॉफी के मुकाबले चाय ही पीना पसंद करते हैं। पर आमतौर पर किसी रैस्तरॉ में कॉफी ऑर्डर करो, नैसकैफे मिलता है, असली सीड कॉफी नहीं।
जब मैं टीन-एज में थी, मुझे हमेशा एक ढाबे में, रोड के किनारे बैठ कर चाय पीने की इच्छा होती थी, जो शायद ही कभी हो पाती थी। जिसकी बहुत बड़ी वजह थी मेरा लड़की होना। अगर कहीं रोड-किनारे बैठ गई, भले ही तीन चार लड़कियां मिल कर... चार-छै लड़के तो हमें घेर ही लेते थे। वो संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जाती थी। वो कुछ ना भी करे, पर उनकी घूरती नज़रे, नज़दीक आने, थोड़ा सा छू लेने की कोशिश या कमेन्ट, ये तो साधारण बात थी। उस ज़माने में आवारा लड़के लड़कियों को आँख मारते थे, यानी एक आँख  दबा कर इशारा करना, उन्हे छेड़ना। चाय के ढाबे मे तो जिधर देखो उधर आँखे दबने लगती। ऐसे में जल्दी ही चाय आधी या पूरी, कुछ भी हो छोड़ कर उठ जाना बेहतर लगता। घर में अगर पता चल जाये कि हम चाय के ढाबे में बैठे थे, तो डांट अलग पड़ती। कहा जाता, किसी होटल या केंटीन में चाय पी लेती। एक बार तो एक आंटी से बहुत डांट पड़ी, कहने लगी, अच्छी लड़कियां रोड पे खड़े हो कर चाय नही पीती।
एकबार पापा के साथ जंगल वाले इलाके में जब रोड पर बैठ कर किसी ढाबे में चाय पी, तो बहुत मज़ा आया। वहाँ शहर वाली सभ्य लड़कियां नही थी, आदिवासी मर्द-औरते- लड़के -लड़कियां सब आराम से एक साथ बैठ कर चाय पी रहे थे।
हमारे लिए रोड में चाय पीना सिर्फ चाय पीने की बात नही थी, लड़कियों की आज़ादी की बात थी, जो उस समय आज की तरह 'आजादी की आवाज़' बन कर नही उभरी थी। पर ये एक सोच की शुरूआत थी। लड़के सड़क पे दिन रात कभी भी कही भी बैठ कर चाय पी सकते है, हम दिन में भी क्यो नही पी सकती?
......
कुछ साल पहले वो कॉफी वाली लड़की बहुत खुशी खुशी मुझसे मिलने आई। हमारे यहाँ बड़े 5 स्टार कि कॉफी की जगह, रोड किनारे ढाबे की चाय जैसा माहौल देख उसके सपनोका महल जो मेरे बारे में खड़ा था, ताश के पत्तो की तरह गिर कर बिखर गया।
उसके लिए मै एक painting बनाने लगी पर वो ले जाने से डर रही थी, या लेना नही चाहती थी, नही जानती। जब वो जाने लगी उसे और उसके परिवार के हर सदस्य के लिए छोटे छोटे तोहफे भेजे, जो शायद महगे नही थे। वापस लौट कर फिर उसने कभी मुड़ कर मेरी तरफ तो क्या मेरी paintings की तरफ भी नही देखा, शायद वे अब तारीफ के काबिल नही रह गये थे!

No comments:

Post a Comment