Monday, February 26, 2018

बीस साल बाद -3

16 -10 - 2017

रौशनी को अंधेरे की चादर लपेटती शाम धीरे धीरे रात की अोर सरकती जा रही थी। हमारी ट्रेन भी सरकती हुई स्टेशन के प्लैटफारम की ओर बढ़ रही थी। मै अपने फोन से विडीयो बनाने की कोशिश कर रही थी। हाथ कांप रहे थे, लड़खड़ाती तस्वीरे कैद करते हुए बार बार लग रहा था, जैसे फोन ट्रेन की खिड़की से बाहर गिरने को हो। शाम सवा पाँच बजे के बाद आखिर ट्रेन टाटा नगर स्टेशन के प्लैटफार्म पर रुक गई। मै भी जैसे ठहर सी गई।अनजाने में आँखे बीते वक़्त में जा, किसी की मुस्कुराहट को ढूढने लगी। मै आते जाते लोगो में किसी को पहचानने की कोशिश में थी। पहले की तरह, शायद कोई हमें लेने आया हो। पर ... कौन? अब तो वहाँ कोई नहीं जो हमें स्टेशन लेने आता! कुछ बेचैन भागते दौड़ते, कुछ मुस्कराते अौर कुछ स्थिर चेहरे इधर उधर दिख रहे थे। आखिर अपने शहर पहुँच गई मै, इस सच को मानने की कोशिश कर रही थी। फिर हड़बड़ा कर पैरो को कुछ घसीठते हुए ट्रैन से उतरने लगी, लगा कही गाड़ी के चल पड़ने से मेरा शहर ना छूट जाये। बब्बू ने कहा, "आराम से अभी टाईम है"। 
    बीस साल पहले उस प्लैटफार्म को मेरे पैरो ने छुआ था, या कहूँ मेरे शहर ने मुझे छुआ था, जब 1997 में मम्मी के साथ आई थी। पर इस बार लग रहा था, मानो वहाँ की पूरी हवा मुझ में समा गई हो। गहरी सांस लेकर ट्रेन से उतर कर हम स्टेशन से बाहर निकले। पहली बार अपने ही शहर में अपने घर में ना ठहर होटल में ठहरने जा रही थी। होटल पहले से ही बुक था। एक बड़े बेढंगे ऑटो में बैठ कर हम होटल के लिए चल पड़े। हमें वही पुराना, पहचाना, मेरे अंदर तक बसा नाम 'साकची' जाना था। जहाँ ना जाने कितने साल गुजारे थे। पता भी ना चला कब नये नये एहसास में लिपटते हुए बचपन जवानी की ओर कदमों को बढ़ाती हुई बढ़ चली थी। ऑटो के ऊचे सीट की वजह से हम बाहर ठीक से देख नही पा रहे थे। झुक-झुक कर जाने पहचाने  रास्तो को पहचानने की कोशिश में थे। स्टेशन से निकल कर पुल पर जाने वाला ऊपर की ओर चढ़ता रास्ता अब भी पहले की ही तरह टूटा फूटा, ऊबड़ खाबड़ था। ऊपर वही पुराना पुल। आगे बर्मा-माइंस में इस्टप्लांट की बस्ती कहाँ गई, समझ नही पा रहे थे।

जगह-जगह पहचाने रास्तों ने कुछ नये नये दुकानो के जामा पहन रखे थे, उन्हे पहचानने में परेशानी हो रही थी। शायद सड़क से दूर  वो छोटी सी बस्ती घनी हो सड़क से आ मिली थी कुछ आगे बढ़ने के बाद हम सोच रहे थे, हमारी मोटर पार्टस की दुकान कहाँ गई? वही कहीं तो थी, एक पुल के पास? एक तो धुंधली यादो में लिपटी बीस साल बाद आई थी, ऊपर से शाम की स्लेटी चादर ओढ़े हमारा शहर। पहले दुकानो की इतनी भीड़ नहीं थी। साकची की एक गली में जब ऑटो मुड़ कर चलने लगा, कुछ समझ नही आया हम कहाँ जा रहे थे। रौशनी फेंकती दुकानो की भीड़ से आँखे चौधिया कर रास्ता भूल बैठी। सब कुछ अनजाना लगने लगा। मै सोच रही थी शहर में साकची का चेहरा ना सही, कम से कम हाथ पैर, कुछ तो पहचान पाऊ। देखते देखते हमारा औटो एक होटल के सामने खड़ा हो गया। सोच रही थी कितनी जल्दी पहुँच गये? दिल्ली में तो थोड़ी दूर जाना हो,  वक़्त की  लम्बाई  इतनी लम्बी होती कि इंतज़ार करते करते आदमी थक जाये, लगता समय खत्म ही नही हो रहा! 
होटल के बाहर खड़े हो कर आस पास देखा, लगा जैसे हमारा शहर हमें पहचान ही ना रहा हो। सोच रही थी, ये कौन सी जगह है? औटो वाले से पता चला ATM पास ही था। बब्बू अब जगह को कुछ-कुछ पहचान रहा था। कहने लगा करनैल होटल पास ही है, हम थोड़ी देर बाद वहाँ चलते है कुछ खाने। होटल के रजिस्टर में हम दोनो का नाम लिख कर, जब होटल वाले ने हमारे बीच का रिश्ता पूछा तो, हमे हंसी आ गई। जैसे हम सोलह साल के लड़का-लड़की घर से भाग कर आए हो। बब्बू ने बहन कह कर हँसते हुए कहा, गर्ल-फ्रेन्ड होती तो नहीं रहने देते? उसने कहा, नही सर। 
हम होटल के कमरे में पहुँच कुछ देर दो दिनो के थके पैरो को बिस्तर पे पसार कर पड़े रहे। बब्बू फोन पर अपने दोस्त राम कुमार से बाते करता रहा। उसी ने होटल में रहने का इंतजाम किया था। फिर थोड़ा फ्रेश होकर हम कुछ खाने-पीने निकल पड़े। बब्बू ATM से पैसे निकाल रहा था अौर मै उस अंधेरी रौशनी में अपने शहर के उस हिस्से को पहचानने की कोशिश। करनैल होटल करीब ही था। वहाँ पापा के साथ जाते थे, कभी कभी, पर वहाँ बैठते नही थे, क्योंकि शाम होते ही वहां दारू पीने वालो की भीड़ हो जाती। होटेल का मालिक पापा की बहुत इज्जत करता था , खाना पैक करवा देता। पहले सोचा था, वहाँ कुछ नॉन-वेज खाया जाय।  ये होटल कभी दारू अौर मूर्गमस्सलम का अड्डा हुआ करता था, पर अब वैष्णो हो गया है। बाहर से खाली खाली बेकार लगा हम आगे बढ़ गये। अब रास्ते हमें अौर हम रास्तों को पहचानने लगे। वही पुराना सब्जी-बाज़ार, कुछ बदला नही था।

बाज़ार के अन्दर से आलू प्याज़ की वो ऊची दुकान मेरी तरफ झांक कर मुस्कुरा रही थी। ना जाने कितनी बार उस दुकान में मम्मी के साथ गई थी। हम बाज़ार के अन्दर ना जा, आगे की अोर बढ़ गये। हमने तय किया, बांदी रोड, जहाँ हमारा घर था, सुबह जाएंगे, अंधेरे में जाने का कोई फायदा नही था। मछली बाजार की गली भी दिखी, वहाँ एक आदमी बड़ा सा टब ले कर बैठा था। शायद पहले की तरह ज़िन्दा मागुर माछ यां केकड़ा बेच रहा था! वहाँ ना जा, हम मिट्टी के खिलौनो की दुकान में पहुँचे। सुबह आ कर खरीदने की बात की। दुकानदार ने सुबह अौर रंगो की लक्षमी ला कर देने की बात कही। एक ठेले वाले से सेब खरीदे, वो खुश हो कर बाते कर रहा था, हमारे समय का था। बता रहा था, पुराने होटल बन्द हो गये, जो वहाँ आस पास हुआ करते थे। बसंत टॉकीज़, जहाँ हम फिल्म देखने जाया करते थे, बन्द हो चुका था। वहाँ बसंत एन्क्लेव बन रहा था। हम अपने पुराने पहचाने साक्ची बाज़ार के रास्ते में घूमने लगे। 
जमशेदपुर में बहुत अच्छी मिठाईया मिलती थी। सोचा, मिठाई खाई जाए। एक मिठाई की दुकान के बाहर सीड़ी पर बैठ कर एक औरत बड़े से दोने में सफेद रस मलाई जैसा कुछ खा रही थी। दुकान में जाकर बब्बू ने कहा, "वो औरत जो खा रही है हमें भी देना"। दुकानदार ने झांक कर देखा फिर कहा वो नही जनता वो क्या खा रही है।
बब्बू ने मुझे उस औरत से जाकर पूछने को कहा। मै बहुत कम बात करती हूँ जिन्हे नही जानती यां थोड़ी बहुत जानपह्चान भी हो तो भी उनसे ज्यादा बाते करना मुश्किल लगता। मै उसके पास जा कर मुस्सकुराई, ताकि उससे पूछ सकू। वो मुस्कुरा कर बोली, "लगता है आप बाहर से आई हैं"। जब पता चला मै भी जमशेदपुर की ही हूँ, और दिल्ली से आई थी बहुत खुश हुई।अब वो बोलती जा रही थी, मै तो देखते ही समझ गई थी, जमशेदपुर तोमार् मायका है, दिल्ली ससुराल। फिर पति, बच्चा, मकान, फैमली, मेरे बारे उसने ही सब कुछ बता दिया, पता नही क्या बोलती रही, मै कुछ बोलू उसने मौका ही नही दिया। मै कुछ कहने लगती, बीच में ही काट कर मेरी बात पूरा कर देती। फिर खड़ी होकर बोली "बहुत अच्छा लगा तुम से मिल कर", आसी बोल कर भीड़ में अपने बच्चे के साथ वो बढिया सा खाने की चीज़ को राज बना, गायब हो गई। उस दुकान से एक एक मीठा चम चम खाया। कोई खास नही लगा। थोड़ी सी मिठाई पैक करवा कर वही बाज़ार में घूमने लगे, पर वो बात मन में अटकी रही- वो औरत इतनी सारी मिठाई कहाँ से खरीद कर खा रही थी?
घूमते घूमते हम साकची के मशहूर मिठाई की दुकान भोला महाराज के सामने पहुंचे। दुकान के ठीक बाहर एक आदमी साईकल पर बड़े-बड़े दोने में वैसा ही कुछ बेच रहा था, जैसा वो औरत खा रही थी। थोड़ा पास जा कर देखा, टुकड़े किये इडली के ऊपर सफेद चटनी। कुछ अंधेरा अौर कुछ दिमाग में छाए मिठाई के भूत की वजह से इडली रस मलाई बन गई थी। हम दोनो हसँने लगे। बब्बू कहने लगा, अच्छा हुआ पता चल गया, नही तो सारे वक़्त दिमाग में घूमता रहता, आखिर वो खा क्या रही थी? 'भोला महाराज' अब दिल्ली के मिठाई की दुकानों की तरह दिखा। बाहर निकल आये, बेकार वहाँ क्या खाना सोचा। फिर वही सवाल खड़ा था, कहाँ कुछ बढ़िया खाया जाय। राम कुमार को फोन किया, उसने पास ही आमबगान में एक होटल बताया। हम रिक्सा ढूढ़ने लगे, एक भी नही मिल रहा था। किसी से पूछा, पता चला रिक्से बन्द होते जा रहे थे। कहा, ऑटो ले लें पास ही है। ऑटो वाले को बहुत जल्दी थी जल्दी जल्दी अभी बैठे ही थे, कहने लगा जल्दी से उतरो, हम पहुँच भी गये थे। वहाँ वो ज्यादा देर गाड़ी खड़ी नही कर सकता था। 
होटल पास ही था. अौर साफ सुथरा भी। मै मिर्च नही खाती हूँ, खाने में मिर्च मसाला नही थी। मुझे वहाँ खाना अच्छा लगा। खाना खाने के बाद हम रिक्सा ढूँढ़  रहे थे, पर मिला नही। रिक्सा वहाँ बन्द होते जा रहे हैं। हर तरफ शेयर वाले औटो भर गये थे। गोलचक्कर तक पैदल गये, रात के अंधेरे में भी सब कुछ बहुत पास-पास और पहचाना लग रहा था। फिर ओटो ले कर होटल पहुँचे.. 
बिस्तर पे लेटे लेटे मै यूँ ही कुछ सोच रही थी, बब्बू फोन पे बाते कर रहा था। वो जिससे भी बात करता, कहता डिड्ल एक बार आना चाहती थी, इसलिये वो उसे लेकर आया। क्या उसे अपने शहर से लगाव नहीं था? सिर्फ मेरे लिए ही वह यहां आया? ये बात मुझ पर किया जाने वाला एहसान बन कर, मुझे दूर कही सुनसान, अकेले में छोड़ आया। अौर मै सबसे जुदा, अकेली, अपने अन्दर समा गई।  राम कुमार हमारे लिए अच्छे से अच्छा इंतजाम कर रहा था। दूसरे दिन के लिए एक टैक्सी बुक थी, ताकि हम सारा दिन आराम से घूम सके...

Shubnum gill

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