Saturday, August 12, 2017

प्रतीक्षा अपनी पहचान की


आॅखे निहारती रही,
बंन्द दरवाज़े को,
शायद वो पागल, सनकी प्रेमी,
अब भी खड़ा हो,
दरवाज़ा खुलने की प्रतीक्षा में!

फिर प्रतीक्षा के गर्भ से,
प्रतीक्षा का पैदा होना,
गुनाह के डर से, मेरे हाथ,
धकेल कर भी,
खोल ना सके दरवाज़ा,
उस पागल प्रेमी (मेरी आजादी) के लिए,
ना आलिंगन ही कर सकी,
अपवित्र होने के डर से,
पर चाह ने तो मुझे,
हर क्षण,
पवित्र ना रहने दिया था!

शबनम गिल



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